सोने से सजे मंदिर और जर्जर स्कूल भवन

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प्रतीकात्मक फोटो

-सर्वमित्र सुरजन

राजस्थान के झालावाड़ जिले के एक सरकारी स्कूल की जर्जर इमारत की छत गिरने से सात बच्चों की मौत हो गई और कम से कम 24 बच्चे घायल हैं। सभी बच्चे 6 से 14 वर्ष की आयु के हैं और अनुसूचित जाति, जनजाति के हैं और इतने गरीब घरों से हैं कि उनके अंतिम संस्कार के लिए ढंग से लकड़ियों की व्यवस्था भी न हो सकी और पुराने टायरों को जलाकर चिताओं में आग लगाई गई।

ज़ाहिर है आज के वक़्त में गांव के सरकारी स्कूल में केवल वही बच्चे पढ़ने जाते हैं, जिनके मां-बाप के पास निजी स्कूलों का खर्च उठाने की हैसियत नहीं होती। यूं तो निजी स्कूलों में भी पढ़ाई का स्तर सवालों के घेरे में ही है, लेकिन कम से कम उनकी इमारतें इतनी असुरक्षित नहीं रहती कि कभी भी दीवार या छत भरभरा कर गिर जाये। निजी स्कूलों के भी अब कई स्तर हैं, सबसे निचले स्तर के स्कूल कस्बों या झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाकों में मिलेंगे, जहां अंग्रेज़ी के नाम पर ही अभिभावकों को लुभाया जाता है। फिर उनसे ऊपर के स्तर वाले स्कूल होते हैं, जहां निम्न मध्यमवर्गीय परिवार अपने बच्चों को सामाजिक प्रतिष्ठा की खातिर भेजते हैं। साथ में दबी हसरत भी रहती है कि कभी इनका सामाजिक दायरा उच्च मध्यमवर्गीय हो जायेगा। और आखिर में आते हैं मध्यमवर्गीय, उच्च मध्यमवर्गीय स्तरों के लिए पांच-सात सितारा सुविधाओं वाले स्कूल। जिसे आम बोलचाल में क्रीमी लेयर वाला कहा जाता है। यहां की बसों से लेकर कक्षाओं तक में एयर कंडीशनर लगे होते हैं, स्कूलों के भीतर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बने रहते हैं, इनके कैंटीन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद मिलते हैं और शौचालय से लेकर पुस्तकालय, सांस्कृतिक भवन, खेलने के मैदान सब की उच्चस्तरीय सुविधाएं मिलती हैं। बदले में एक-एक बच्चे से महीने की लाखों की फ़ीस वसूली जाती है। उच्च मध्यमवर्ग इसे आराम से भरता है और मध्यमवर्ग अपनी ज़रूरतों को काटकर या फिर कमाई को बढ़ाने के लिए ग़लत तरीके अपना कर फ़ीस का इंतज़ाम करता है।

भारतीय समाज में शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त यह वर्गभेद अब इतना सामान्य मान लिया गया है कि इस पर किसी के माथे पर शिकन नहीं आती कि हमने अपने भविष्य के नागरिकों को किस चक्रव्यूह में फंसा दिया है। ऐसे समाज में अगर सात बच्चों की अकाल मौत पर भी कोई व्यापक प्रतिक्रिया न हो, तो उसमें क्या आश्चर्य करना। समाज का यूं आत्मकेन्द्रित होना ही सरकार को इस बात की सुविधा देता है कि वह अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ ले और पूरे वक़्त चुनाव प्रचार की मानसिकता से काम करे। अख़बारों और टीवी पर रोजाना तस्वीरें आती हैं जिनमें प्रधानमंत्री किसी न किसी चीज का उद्घाटन करते, शिलान्यास करते दिखाई देते हैं। नौबत ऐसी आ चुकी है कि अब ट्रेन को हरी झंडी दिखाने से लेकर सफाई कर्मियों को झाड़ू बांटने तक हरेक काम को एक ‘इवेंट’ की तरह किया जाता है। जबकि प्रशासन इन्हीं कामों के लिए होता है, अधिकारियों-कर्मचारियों को काम करने की ही तनख़्वाह मिलती है। इसमें न किसी प्रचार की ज़रूरत है, न नेताओं-मंत्रियों की। प्रशासन से काम करवाने के लिए शासन की बागडोर जिनके हाथों में है, उन्हें भी काम करना होगा।

लेकिन अब काम से किसी को कोई मतलब नहीं दिखता, केवल फ़ोटो खिंचवाने से मतलब है। इसलिए झालावाड़ में स्कूल की छत गिरने से मृत बच्चों के परिजनों से मिलते नेताओं की तस्वीरें हैं, अस्पताल जाकर घायल बच्चों से मिलते नेताओं की तस्वीरें हैं, लेकिन इस एक घटना से सबक लेकर अब राज्य के बाकी सरकारी स्कूलों का निरीक्षण कर सुधार करवाते नेताओं की तस्वीरें नहीं हैं। क्योंकि सरकार को पता है कि जनता भी हमसे तभी जवाब मांगेगी, जब कोई बड़ी घटना हो जायेगी। दो-चार दिन के हल्ले के बाद सवाल उठने भी बंद हो जायेंगें और जनता फिर किसी नये तमाशे में उलझा दी जायेगी। अगर जनता सचेत रहती तो सरकार से जवाब मांगती कि राज्य सरकार ने पिछले 5 साल में 1675 करोड़ रुपये की घोषणा सरकारी स्कूलों में सुधार और उन्नयन के लिए मंज़ूर किए हैं, इतने रुपयों का आखिर हिसाब क्या है। ये कहां खर्च हुए और अगर नहीं हुए तो फिर कहां गये।

मसलन, बिहार में अभी कैग की रिपोर्ट से पता चला है कि 71 हज़ार करोड़ रुपयों का कोई हिसाब ही नहीं है कि ये किस तरह इस्तेमाल हुए हैं। जो हाल बिहार का है, बाकी राज्यों का भी उससे अलग नहीं होगा। लेकिन कौन सा नेता मस्जिद में गया, किसने किसको जन्मदिन की बधाई दी, किसके यहां आम की दावत हुई ऐसी फिजूल खबरों में देश को मगन रखा जा रहा है। कभी सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के गिरते स्तर या संसाधनों की कमी जैसे मुद्दों पर बात आती है, तो उन्हें भी टालने के लिए नए उपक्रम किए जाते हैं। कभी मुख्यमंत्री सरकारी स्कूलों के बच्चों से मिलेंगे, कभी लैपटॉप, साइकिल देने की घोषणाएं होंगी और प्रधानमंत्री मोदी का हर साल परीक्षा पे चर्चा का कार्यक्रम तो रहता ही है। जिसमें लाखों करोड़ खर्च कर दिए जाते हैं ताकि नन्हे बच्चों को भाजपा और नरेन्द्र मोदी का मुरीद बनाया जाए। 2022 की नरेन्द्र मोदी की गुजरात यात्रा की वो तस्वीर भी पाठकों को याद होगी, जिसमें वे एक स्कूल की कक्षा में विद्यार्थियों के साथ बैठे हैं। बाद में पता चला कि वह पूरा सेट बाकायदा सजाया गया था। यानी सब कुछ नकली था, केवल प्रधानमंत्री असली थे।

जब देश के प्रधानमंत्री असली कक्षा में बैठने की जहमत न उठा सकें तो फिर कैसे उम्मीद रखी जाये कि इस देश में झालावाड़ जैसी घटनाएं आगे नहीं होंगी। कुछ समय पहले एआई से बने बंदर लीला योगी का एक वीडियो आया था, जिसमें मंदिरों के सोने से सजे होने और स्कूलों की छत टपकने की विडंबना का जिक्र किया गया था। उम्मीद नहीं थी कि उस व्यंग्य की त्रासदी इतनी जल्दी, इस तरह से सामने आयेगी।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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