सृजन संवाद में उठा प्रतिरोधी साहित्य और संस्कृति का स्वर

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-संजय चावला-

कोटा. छावनी स्थित मांगलिक भवन हॉल में रविवार को विकल्प जन सांस्कृतिक मंच, मुहिम एवं श्रमजीवी विचार मंच के संयुक्त तत्वावधान में “सृजन संवाद” परिचर्चा का आयोजन किया गया। इसका मुख्य विषय था— वर्तमान कॉर्पोरेट-मनुवादी परिदृश्य में साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक प्रतिरोध की भूमिका। संयोजक महेन्द्र नेह ने कहा कि आज भारत के कॉर्पोरेट घराने राष्ट्रहित नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय पूंजी के प्रतिनिधि बन चुके हैं, जिससे अमीर-गरीब की खाई गहराई तक बढ़ गई है।

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अधिवक्ता दिनेश राय द्विवेदी ने आगाह किया कि कीर्तन, कथाओं, धार्मिक यात्राओं और मंदिर-मस्जिद के झगड़ों के जरिए सुनियोजित ढंग से सामाजिक चेतना को भ्रमित किया जा रहा है। इसके प्रतिकार में साहित्यकारों को गाँव-गाँव जाकर लोकतंत्र, समता और इंसानियत की अलख जगानी होगी। मुख्य अतिथि विजय सिंह पालीवाल ने कहा कि भारत की राजनीति और साहित्य संस्कृति में अहंवाद और अवसरवाद सबसे बड़ी बीमारियाँ हैं जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था और साहित्य की गरिमा को नष्ट कर दिया है। जनवादी लेखक संघ के नागेन्द्र कुमावत ने प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध को याद करते हुए कहा कि उनकी रचनाएँ आज भी गरीब और दलित वर्ग की आवाज़ हैं। नारायण शर्मा ने पूंजीवादी व्यवस्था को असमर्थ बताते हुए समाजवाद को ही समाधान बताया। हंसराज चौधरी ने कहा कि साम्राज्यवाद ने साम्रदायिकता, आतंकवाद और नस्लवाद से समझौता कर लिया है।

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मुहिम के राजमल शर्मा ने कहा कि साहित्यकार जीवन की सच्चाई लोगों तक पहुंचाएं। संचालन कर रहे प्रो. संजय चावला ने कविता के माध्यम से प्रतिरोध का स्वर उठाते हुए कहा — “अब न मौन, न संकोच, न केवल गौरवगान — सृजन बने प्रतिरोध अब, हो सच का जयगान।” परिचर्चा में कोटा व झालावाड़ के कई जनपक्षधर साहित्यकारों और विचारकों ने हिस्सा लिया। विजय राघव, हाफिज राही, धनीराम समर्थ (झालावाड), आनद हजारी तथा रामकरण प्रभाती ने भी अपने विचार व्यक्त किये.

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