
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
मुझ पे हालात मुसल्लत* हैं मैं मजबूर नहीं।
क़ाफ़िला वर्ना मुहब्बत का कोई दूर नहीं।।
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क्यूॅं मिलायेंगे मुझे ख़ाक* में जलवे उनके।
वो नहीं कोई ख़ुदा मैं भी कोई तूर नहीं।।
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ज़ुल्म करना तेरी फ़ितरत तेरी आदत ही सही।
ज़ु़ल्म सहना मेरा शेवा* मेरा दस्तूर नहीं।।
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लोग यूॅं ही उसे बदनाम किया करते हैं।
कम सुख़न* गोशा नशीं* है कोई मग़रुर नहीं।।
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छोड़ दो छोड़ दो बुतखा़ने में आना वाइज़।
क्या तुम्हारे लिए जन्नत में कोई हूर नहीं।।
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ये भी माना कि बहुत दूर है मंज़िल अपनी।
अज़्म* गर अपना जवाॅं हो तो कोई दूर नहीं।।
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मुझको फ़रहाद या मजनूॅं तो न समझो लोगो।
क़िस्सा ए इश्क़ मेरा इतना भी मशहूर नहीं।।
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रोशनी इसमें है सूरज की बदौलत “अनवर”।
चाॅंद रोशन है मगर ख़ुद का कोई नूर नहीं।।
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मुसल्लत* हावी
ख़ाक*मिट्टी
फ़ितरत*स्वभाव
शेवा* तरीक़ा
कम सुख़न* कम बोलने वाला
गोशा नशीं* एकांतवासी
वाइज़* धार्मिक उपदेशक
हूर* स्वर्ग की अप्सरा
अज़्म* हौसला
शकूर अनवर
9460851271