
-दिनेश कुमार मिश्र एवं धीरज पचौरी-
‘चाय जीवन और बातें‘काव्य संग्रह मेरे अनुज श्री विवेक कुमार मिश्र का दूसरा काव्य संग्रह है। काव्य संग्रह को पढ़कर समकालीन अर्थों में भी सामाजिक प्रश्नों के अनेक द्वंद्व समझे जा सकते हैं। ‘चाय, जीवन और बाते‘ मनुष्य मन की बारीकियां और उसकी कई परतों वाली उधेड़बुन को संयम सहजता से परोसने का उपक्रम करती है। चाय को केन्द्र में रखकर की गयी कविताएँ अलग-अलग दृष्टिकोणों से कही जाने के कारण बदल जाती हैं जिसके फलस्वरुप पाठको को प्रत्येक कविता के रसास्वादन में एक ताजा एवं विशिष्ट अनुभव होता है। ‘चाय, जीवन और बाते‘ मनःस्थिति, दैहिक एवं भौतिक द्वंद्व के बीच खड़े आधुनिक मनुष्य के आंतरिक एवं बाह्य पक्षों, के बीच ‘चाय‘ की उपस्थिति पर सघनता से विचार है।
श्री मिश्र का काव्य संग्रह चाय के चूल्हे की सुगंध से शुरु होकर चाय की थड़ी पर समाप्त होता है। काव्य संग्रह के रसास्वादन की प्रक्रिया में इस बात की मौजूं अभिव्यक्ति रेखांकित है कि चाय में मात्र पत्ती, दूध, चीनी, अदरक, चाय के मसाले का स्वाद ही नहीं मिलता बल्कि आॅफिस के सामने की दुकान के सामने की दुकान पर जीवन के समानांतर संसार घटित होता हुआ दिखता है। गौरतलब है कि आज की तिथि में चाय से सस्ता पेय पदार्थ नहीं है। इस बात का उल्ल्लेख अपनी कविता में करते हुए लेखक ने चाय के साथ सामाजिक सरोकार की,…, संपन्नता का भी उल्लेख किया है जिसमें चाय के प्याले के साथ चाय की प्लेट, चाय बनाने वाला सड़क की चाय, ड्राइंग रुम की चाय एवं बड़े अधिकारियों, नेताओं की किसी विषय विशेष की होने वाले निर्णय की चाय की महत्ता पर भी प्रकाश डाला गया है।

‘चाय का ठीहा‘ शीर्षक कविता में सड़क किनारे चाय का जीवंत चित्रण करते हुए इस ठीहे पर विचार-विमर्श करते हुए लेनिन-माक्र्स, गांधी-नेहरु-टैगोर से समकालीन समय में मोदी जी तक बात आती है उनका दृश्य चित्र भी, अस्सी घाट पर स्थित चाय की दुकान से होते हुए ‘इलाहाबाद यूनीवर्सिटी‘ के विश्वविद्यालय में कटरा स्थित पेड़ के नीचे टपरी पर चल रही चाय की दुकान पर, सुदूर क्षेत्रों से आये हुए अध्ययनरत लड़कों के बीच की परिचर्चा भी कविता पढ़ते समय जीवंत हो उठता है। चाय के प्याले में जीवन के अनेक सुलझे एवं अनसुलझे सूत्र भी दृष्टिगत होते हैं। जो चाय पीने वाले और चाय पिलाने वाले के बीच की परिचर्चा की समय-सीमा को प्याले के खाली होने तक याद दिलाती है। ‘शेखर एक जीवनी‘ में शेखर भी इस बात का उल्लेख करता है कि चाय पीते समय अपनी बात खत्म होने तक अपने चाय के प्याले को खाली न होने दें। इस बात का अनुभव इस पुस्तक में येन-केन मिलता रहता है।
‘चायशाला‘ शीर्षक कविता में चायशाला पर विश्राम की मुद्रा का भी उल्लेख किया गया है जबकि कविता के अंत तक चायशाला जीवनशाला से जुड़ जाती है। यही नहीं चाय की यात्रा व्यक्ति की जिजीविषा को भी रेखांकित करती है जिसमें चाय के एक घूंट से पूरे दुनियाजहान के दिमाग का तंतु खुल जाता है। चाय गर्म ही होती है। चाय कभी ठंडी नहीं होती । ये गर्म शब्द जीवन की ऊर्जां की जीवंतता को परिलक्षित करती है। चाय के साथ दुनियावी रिश्ते गर्मजोशी के साथ जुड़ रहते हैं। चाय घर की हो, बाजार या आॅफिस की हो उसके घूंट से प्याले कुल्हड़, गिलास, कप से चाय का संसार परिलक्षित होता है।

‘चाय को बांच रहे‘ शीर्षक कविता में कवि इस बात को प्रमुखता से इंगित करने में सफल रहे हैं कि चाय व्यक्तियों की बीच की अव्यक्त खामोशी/बर्फ को तोडने का भी काम करती है। चाय के शामिल होने से दो व्यक्तियों के बीच प्रेम, स्नेह एवं मेल और गाढ़ा हो जाता है। चाय की उपस्थिति से आपसी सौहार्द एवं व्यक्तियों के आकर्षण थोडा और बढ़ जाता है। इस मायने में चाय भावात्मक गोंद का भी कार्य करती है।
‘चाय शास्त्र की सामाजिकी‘ शीर्षक कविता में कवि ने चाय के बहाने सामाजिकी को समझने की चेष्ठा की है। कवि ने चाय से जुडे नवीन पहलुओं पर दृष्टिपात करने का प्रयास किया है। चाय के इर्द-गिर्द बनते सामाजिक जीवन एवं विभिन्न पहलू एक वातावरण का निर्माणकरते हैं जिसमें समाज के भीतर नवीन आयामों को समझने में मदद मिलती है, इस प्रक्रिया में रोजगार की दृष्टि से ठेले पर बैठे रहने वाले से लेकर, चाय पीने वाले एवं विभिन्न वर्गाें से आने वाले लोगों की चाय के माध्यम से जीवन चर्चा, यात्रा के भीतर कई लोगों की समानांतर यात्राओं के बीच चाय की उपस्थित का सघन वर्णन करती है। कहा जा सकता है कि कवि अपने शीर्षक ‘चाय शास्त्र की सामासिकी‘ की सार्थकता सिद्ध करते हुए समाज में उपस्थित चाय की उपस्थिति को दर्शाने में सफल हुए हैं, जो कविता में नए प्रयोग की दृष्टि से अनूठा है।
‘चाय, बीड़ी और मुक्तिबोध‘ शीर्षक कविता में कवि मुक्तिबोध के विशिष्ट फैंटेसी शिल्प एवं बिंब के माध्यम से एक आभासी दुनिया का सृजन करता हैः जिसमें कवि सांसारिक द्वंद्व, आमजन के संघर्ष एवं विमर्श को अपने काव्य के माध्यम से पाठक के अंतर्मन पर उकेरने का प्रयास करता है। मानव के अंतर्मन एवं उपस्थित विसंगतियों के समझने के साथ कवि चाय के माध्यम से,‘ हर फटेहाल आदमी की समस्याओं को सुनकर……‘ समाधान की खोज का भी प्रयास करता है। इससे कवि के नैतिक मन एवं समाज सुधार की चेष्टा के प्रयास को भी समझा जा सकता है। मुक्तिबोध के ही शब्दों में कहें तो,‘ इसलिए जो है उससे बेहतर चाहिए पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए, वह मेहतर मैं हो नहीं पाता‘। मनुष्य के व्यावहारिक मन एवं आदर्शवादी मन की अनेक फांको का भी निरुपण करने में कविता सफल हुई है।
काव्य संग्रह को पढ़कर समकालीन अर्थों में भी सामाजिक प्रश्नों के अनेक द्वंद्व समझे जा सकते हैं। काव्य संग्रह के माध्यम से कवि ने मनुष्य मन की बारीकियां और उसकी कई परतों वाली उधेड़बुन को संयम सहजता से ‘चाय, जीवन और बाते‘ परोसने का उपक्रम करती है।

‘चाय, जीवन और बाते‘ के केन्द्र में चाय की विषयवस्तु समाज के हर वर्ग से जुडी हुई एवं हर वर्ग के लिए मानीखेज एवं प्रासंगिक है। काव्य संग्रह चाय के साथ इंसानी रिश्तों एव भावात्मक पहलुओं को समझने के सार्थक पक्षों पर दृष्टिपात करती है।
फलतः कहा जा सकता है कि कवि, अपने काव्य संग्रह ‘चाय, जीवन और बाते‘ में चाय के माध्यम से मानव जीवन एवं समाज के प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत यथार्थ की सुंदर एवं सहज अभिव्यक्ति करने में सफल रहे हैं।
सीमाएॅ
काव्य संग्रह पढ़ने पर कई बार यह महसूस होता है कि अंतिम चरण में प्रस्तुत कविताएॅ पूर्व के पृष्ठों में भी मेरे द्वारा पढ़ी जा चुकी है जिससे यह परिलक्षित होता है कि चाय पर चर्चा राजनीतिक स्टंट को कहीं कहीं कवि ने रचना के स्टंट में तब्दील कर दिया है। कविताओं की पुनरावृत्ति एक सुविज्ञ पाठक को रचनाकार के प्रति मोहभंग करती है।
इस काव्य संग्रह को चाय की कहानी/नाटक/निबंध का रुप भी देकर रचनाकार इससे अधिक बड़ी बात कह सकता था। चाय जीवन की जिजीविषा जीवंतता खौलते गर्म पानी में सुस्वाद के साथ मां की ममता/पत्नी केप्यार/ बहन के दुलार को एकसाथ कप, गिलास, कटोरा, दादा के लोटे को चाय में परोसकर सुस्वाद बनाता है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के परिसर के पास सुदामा की चाय, दिल्ली विश्वविद्यालय में सुदूर क्षेत्रों से गये हुए गरीब आर्थिक विपन्न परिवारों को कुल्हड की चाय 10 रुपये से लेकर 50रुपये के प्याले तक मिलती है, जो लडके लडकियां रेस्टोरेन्ट के पैसे खर्च करने में असमर्थ होते हैं उनके प्यार की पींगे दिल्ली के सुदामा की चाय के स्टाॅल से शुरु होती है। आॅफिस के अकर्मण्य कर्मचारी, कर्महीन अधिकारी कार्यालय के कमरे के चिक से चाय पिलाने वाले व्यक्ति के आने की प्रत्याशा में कलम की स्याही सुखाते एवं कागज गीले करते रहते हैं।
काव्य संग्रह में प्रयुक्त भाषाशैली किसी भी आमजन की समझ के लिए सुलभ है। कविता में कुछ देशज एवं लोकभाषा से लिए गये शब्द प्रयोग से पाठक कविता के पाठन में कविता से थोड़ा और जुड़ाव महसूस करता है।
समीक्षा द्वारा-
1. श्री दिनेश कुमार मिश्र,
अपर आयुक्त ग्रेड-2(अपील), राज्य कर,
आगरा।
2. श्री धीरज पचैरी,
वरिष्ठ सहायक,
राज्य कर, आगरा।

















