चाय पकाते हैं

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-विवेक कुमार मिश्र

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

कवि के साथ चाय अलग ही पकती है
यहां केवल केतली में ही चाय नहीं पकती
चाय के साथ साथ कवि भी उबल रहा होता है
एक न एक कथा चाय के रंग से ही शुरू हो जाती

चाय पकते पकते न जाने कितने भाव विचार
घुमड़ कर आ जाते हैं कि
कवि की चाय तो
टेबल पर बनी रहती

और कवि चाय के स्वाद के साथ
भावों का , विचारों का ,
हिसाब किताब लगाता रहता

कवि के यहां चाय
एक भरे पूरे आदमी की कथा हो जाती

यहां जो चाय की उपस्थिति होती
वह सदियों सदियों पुरानी बातों संग
क्षण में चल रही गाथाओं को भी छेड़ देती है
चाय के साथ समय , मौसम और जिंदगी
सब मिलकर अपनी अपनी कथाएं
दर्ज कराती रहती हैं

चाय पर तुम अकेले नहीं होते
तुम्हारी चाय की जो टेबल है
वह आप से आप जोड़ लेती है
दुनिया भर के किस्से कहानी

और जिंदगी से निकली बातों के सिरे पर
तुम्हारी चाय घूमती रहती है ।

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