
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

*
बिखरी बिखरी हर ख़ुशी अच्छी लगी।
मुन्तशिर* सी ज़िंदगी अच्छी लगी।।
*
उसकी दानाई* का मैं क़ाइल* हुआ।
मुझको उससे दुश्मनी अच्छी लगी।।
*
टेडी-मेढ़ी दूर तक ग़म की क़तार*।
साॅंप जैसी ये नदी अच्छी लगी।।
*
जा रहा था जब ये सूरज डूबने।
पंछियों की वापसी अच्छी लगी।।
*
होते-होते दिन भी पूरा हो गया।
जाते-जाते शाम भी अच्छी लगी।।
*
नर्म फूलों से चुने रस्ते भी थे।
क्यूँ झुलसती रेत ही अच्छी लगी।।
काॅंपती रातों का अपना हुस्न* था।
सर्दियों की चाॅंदनी अच्छी लगी।।
*
ऑंधियों के लश्करी अंदाज़” थे।
मौसमों की छावनी अच्छी लगी।।
*
जगमगाते शहर में “अनवर” मुझे।
बस अभावों की गली अच्छी लगी।।
*
शब्दार्थ:-
मुन्तशिर*अस्त व्यस्त,बिखरी हुई
दानाई*अक्लमंदी
क़ायल* मुरीद होना
क़तार* यानी पंक्ति
हुस्न*सौंदर्य
लश्करी अंदाज़*फौजी तरीका
*
शकूर अनवर
9460851271