दुःख का घर

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– विवेक कुमार मिश्र

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

आदमी को खुश रहने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं होती
जहां जिस हाल में है जैसे है वैसे ही खुश रह सकता है
बस अपने भीतर को समझने की कोशिश करें
समय समय पर अपने को ही जानना शुरू करें कि उसके लिए क्या उचित है
उसे क्या पाना है और क्या है जो उसे नहीं मिला
देखेंगे कि आदमी को कुछ पाना नहीं है
वह बस परेशान है कि उसके आसपास के लोग न जाने कहां चलें गये
और वो यहीं पर पड़ा हुआ है
फिर वो दुनिया भर की खुशियों को छोड़कर दुःखी हो जाता है और दुःख को अपना आदर्श घर बना लेता है
आदमी यदि खुश रहना सीख लें तो खुशियां उसके आसपास मंडराने लगती है
फिर ये भी हो सकता है कि मामुली संदर्भ भी बड़ी खुशी हो जाएं
खुश होने के लिए बड़ों जैसा नहीं बच्चे की तरह होना पड़ता है
खुशियों की खुशी आनंद भी यहीं है
आनंद कहीं बाहर नहीं है
यह हमारे भीतर ही होता है
आनंद को जब महसूस करते हैं तो दुनिया बिना कहे ही सुंदर दिखने लगती है
एक आदमी इस दुनिया को आनंद के साथ जीना चाहता है
जो आनंद के साथ दुनिया जीता है उसके भीतर हर स्थिति में एक बच्चा होता है।
एक आदमी बस आनंद में रहना चाहता है ।

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