
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

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कोई किसका कोई किसी का था।
क्या अजब खेल दिल्लगी का था।।
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उसके चेहरे पे बात आ पहुॅंची।
ज़िक्र फूलों की ताज़गी का था।।
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अब तो हम दार* तक ही आ पहुॅंचे।
ये तमाशा भी बेख़ुदी का था।।
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क़हतसाली* हो जैसे ख़ुशियों की।
बस यही हाल ज़िंदगी का था।।
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बीच में आ गया मेरे मज़हब।
मुस्तेहक़* मैं भी ख़ुदकुशी का था।।
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उसकी फ़ितरत में रहज़नी क्यूँ है।
उसका शेवा* तो रहबरी का था।।
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बस गये क्यूँ ॲंधेरे बस्ती में।
ये तो इक शहर रोशनी का था।।
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चुप रहा हूँ मैं उससे खा के फ़रेब*।
फिर सवाल उसकी दोस्ती का था।।
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हम संभलते भी किस तरह “अनवर”।
दिल पे इक वार फिर उसी का था।।
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दार*सूली
क़हतसाली*अकाल,सूखा
मुस्तेहक़*पात्रता रखने वाला
फ़ितरत* स्वभाव
शेवा*ढंग,तरीका
फ़रेब*धोखा
शकूर अनवर
9460851271