मन की मन से सुने

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– विवेक कुमार मिश्र-

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

मन है और मन
इतना जल्दी जल्दी भागता रहता है कि
आदमी सुनने वाला भी हो
तो मन की नहीं सुन पाता
मन ऐसे ही पड़ा रहता है
और अचानक से ही कह उठता
कि यह करों यह मत करों
पूछो कि भाई ऐसा क्यों
तो मन चुप लगा जायेगा
या कोई ऐसा वैसा जवाब देगा
जो गले नहीं उतरता
पर क्या इससे मन पर
कोई फर्क पड़ता है
या मन बुरा भी मान जाता है
तो भी कोई कहां मन का
ध्यान रखता, कहां मन की सुनता
सब लोग बस ऐसे ही कहते रहते कि
भाई मन की भी सुन लिया करो
मन का भी समय रहते
हाल चाल ले लेना चाहिए
समय का क्या है,
वह तो समय का पाठ करते करते
निकल जायेगा , फिर तुम करते रहना
मन की मन भर बातें,
पर समय निकल जाने पर
कोई भी नहीं सुनता
मन जो कुछ कहे
उसे ध्यान से सुनना ही चाहिए
पर मन की कोई भी कहां सुनता
बात बिगड़ जाती है,
जब कुछ भी बस का नहीं होता
तो आदमी बस यहीं कहता है कि
मन की सुन लिया होता तो ऐसा नहीं होता
फिर वह कोशिश करता रहता है कि
मन कुछ कहे
और मन की सुनकर
वह कुछ कर सकें
पर मन तो मन ही है कोई सुने न सुने
मन को ठेस भी पहुंचे तो भी मन
कहीं कोने में चुप मारकर पड़ा रहता है
एक मन है और हजारों हजार
कहने सुनने वाले
अब भला कैसे कहां तक सुने मन भी
एक समय के बाद मन मन की भी नहीं सुनता
विश्वास न हो तो मन से कुछ कह कर देख लीजिए।
– विवेक कुमार मिश्र 

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