
-डॉ. रामावतार सागर-

हुआ है कब कहाँ कोई हमारा तो सगा सावन
रुलाकर जा रहा है हमको तो बस हर दफा सावन
किसी से कर लिया था कोई वादा मेरी आँखों ने
बरसती ही रही दिन-रात जब तरसा रहा सावन
बसा है आज भी मंजर निगाहों में मेरी यूँ ही
छुड़ा कर जब गया था हाथ मेरा वो भरा सावन
उसे उम्मीद पूरी है किसी दिन लेने आएगा
जमाने से छुपा रक्खा निगाहों में बसा सावन
मिलेगी दूर तक राहों में तुमको खूब हरियाली
अभी गुजरा यहाँ से झूमता गाता हुआ सावन
नयी उजली सी लगती है गुलिस्तां की हरी पट्टी
लगे है जैसे आकर आज ही इनमें बसा सावन
जमाना जानता है ये हकीकत यूँ तो सब सागर
कहानी में तुम्हारा नाम सुन क्यों रो पड़ा सावन
(ग़ज़ल संग्रह “निगाहों में बसा सावन” से एक ग़ज़ल)
डॉ. रामावतार सागर
कोटा, राजस्थान

















