
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

ये मिला ज़िंदगी से बस मुझको।
चैन आया न यक-नफ़स* मुझको।।
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ज़िंदगी मुझसे मत हो शर्मिंदा।
तुझ पे आने लगा तरस मुझको।।
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अब तो मैं क़ाफ़िले से बाहर हूँ।
क्यूँ बुलाता है ये जरस* मुझको।।
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मैं तो क़ब्ज़े में तुझको कर लूँगा।
तू अगर साॅंप है तो डस मुझको।।
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क्या करूँगा मैं ऐसी आज़ादी।
इससे अच्छा ही था क़फ़स* मुझको।।
”
अपनी जुल्फ़ों में कर असीर* मुझे।
अपनी बाहों में और कस मुझको।।
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मेरी शोहरत ही मुझको ले डूबी।
खा गई नाम की हवस” मुझको।।
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अब तेरे इंतज़ार में “अनवर”।
एक पल भी लगे बरस मुझको।।
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शब्दार्थ:-
यक नफ़स*साॅंस भर, क्षण भर
जरस*क़ाफ़िला रवाना होने पर बजने वाली घंटी
क़फ़स*पिंजरा असीर*बंदी क़ैदी
नाम की हवस*नाम की भूख
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शकूर अनवर
9460851271

















