
-मनु वाशिष्ठ-

यक्ष प्रश्न?
कब आओगे?
हमेशा की तरह
इंतजार करती निगाहें
और मां का यक्ष प्रश्न
कब आ रहे हो ……..
मेरा भी हमेशा की तरह
एक ही जवाब,दिलासा
आ रहा हूं जल्दी
जल्दी ही आऊंगा……..
पुराने घर का आंगन
आपके हाथ का खाना
आप और पिताजी के साथ
समय बिताऊंगा……..
तिथि, दिन, वार, महीने में
और महीने
सालों में तब्दील हो गए ……..
घर की दीवारें ही नहीं
बगीचे में रोपे बीज भी
फलदार वृक्ष हो गए………..
एक एक कर बिछुड़ते
दादी बाबा,
घर की शोभा बढ़ाते
सामान हो गए………..
गांव से शहर
फिर दूसरा राज्य
अब सरहदों के पार,दूसरा देश ………
समय ही नहीं
दूरी भी सीमाएं लांघ रही है
कमाने की चाहत है
या है, जरूरतें पूरी करने की
जरूरत ……….
और मैं! जरूरतें,
चाहत, जिम्मेदारियों
के बीच खुद को ही नहीं
खोज पा रहा हूं……….
(कवयित्री कोटा जंक्शन निवासी हैं)
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मन को छू लेने वाली सच्चाई। कहीं न कहीं कमाने की चाह और जरूरतों को पूरा करने की जरूरत दोनों ही आड़े आ जाती हैं।