कैसे खुदकुशी के मामलों को खत्म किया जाए

भारत में युवाओं और कारोबारियों के खुदकुशी करने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं जो समाज और सरकार दोनों के लिए गंभीर चिंता का विषय है । पिछले साल 6 दिसंबर को लोकसभा में बताया गया था कि देश में 2019 से 2021 के बीच 35,000 से ज़्यादा छात्रों ने आत्महत्या की। कोविड के बाद कारोबारियों के भी आत्महत्या करने के केस तेजी से बढ़ रहे हैं।

-विवेक शुक्ला-

अब शायद ही कोई दिन ऐसा  गुजरता हो जब अखबारों में किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले युवा के खुदकुशी करने संबंधी दिल दहलाने वाला समाचार ना छपता हो। यह बेहद गंभीर मसला है और इस पर सारे देश को सोचना होगा। इसी तरह से आजकल बिजनेस में घाटा होने के कारण भी आत्म हत्या करने वालों की तादाद लगातार बढ़ती ही चली जा रही है। अभी कुछ दिन पहले एक  साइकिल बनाने वाली मशहूर कंपनी के अरबपति मालिक ने भी खुदकुशी कर ली थी।

 पिछले साल 6 दिसंबर को लोकसभा में बताया गया था कि देश में 2019 से 2021 के बीच 35,000 से ज़्यादा छात्रों ने आत्महत्या की। छात्रों के खुदकुशी करने के मामले 2019 में 10,335 से बढ़कर 2020 में 12,526 और 2021 में 13,089 हो गए। इसमें कोई शक नहीं है किसी भी हालत में किसी खास परीक्षा में सफल होने के लिए माता-पिता, अध्यापकों और समाज का भारी दबाव और अपेक्षाएं छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डाल रही हैं। राजस्थान का एक शहर है कोटा। यहां पर हर साल एक अनुमान के मुताबिक, हजारों नहीं लाखों छात्र – छात्राएँ   देश के शीर्ष कॉलेजों में से एक में प्रवेश पाने की उम्मीद में कोटा पहुंचते हैं। इनके जीवन का एक ही लक्ष्य होता है कि किसी तरह से IIT/NIT या मेडिकल की प्रवेश परीक्षा को क्रैक कर लिया जाए।

 अभी हाल ही में दिल्ली- हरियाणा सीमा पर स्थित सेंट स्टीफंस कैम्बिज स्कूल में ‘ निराशा को हरा दें’ विषय पर  चर्चा हुई। इसमें मनोचिकित्सकों, डॉक्टरों, बच्चों,  अध्यापकों और अभिभावकों ने भाग लिया। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. विनय अग्रवाल ने कहा जीवन में निराशा का कोई मतलब नहीं है। किसी को भी आत्महत्या से बचाने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। सेंट स्टीफंस कैम्ब्रिज स्कूल को वही दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी

(डीबीएस) चलाती है, जिसने देश के चोटी के सेंट स्टीफंस कॉलेज की स्थापना की थी। इससे महान स्वाधीनता सेनानी दीनबंधु एंड्रयूज भी जुड़े हुए थे। उन्होंने सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ाया भी था। वे दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी से 1916 में मिले थे। उसके बाद दोनों घनिष्ठ मित्र बने। उन्होंने  1904 से 1914 तक सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ाया। उन्हीं के प्रयासों से ही गांधी जी पहली बार 12 अप्रैल-15 अप्रैल, 1915 को दिल्ली आए थे।

 बेशक, स्कूलों और क़ॉलेजों में  मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता फैलाना महत्वपूर्ण है। छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों को आत्महत्या के संकेतों, जोखिम कारकों और मदद कैसे लें, इसके बारे में शिक्षित करना होगा। इसमें आत्महत्या की रोकथाम पर कार्यशालाएँ, सेमिनार और कक्षा में चर्चाएँ शामिल हो सकती हैं।

आप कोटा या फिर देश के किसी भी अन्य शहर में चले जाइये जहां पर मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों के साथ-साथ सिविल सेवाओं वगैरह के लिए कोचिंग संस्थान चल रहे हैं। वहां पर छात्र अत्यधिक दबाव और असफलता के डर से मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत कष्ट की स्थिति में हैं। हमें खुदकुशी के बढ़ते मामलों पर सिर्फ चिंता ही व्यक्त नहीं करनी। हमें इसे रोकना ही होगा।  इस बीच,  कुछ कोचिंग सेंटर चलाने वाले भी इस तरह के प्रयास तो कर रहे हैं ताकि छात्र बहुत दबाव में न रहें। राजधानी के एक कोचिंग सेंटर के प्रमुख ने बताया कि हम छात्रों की लगातार काउंसलिंग भी करते रहते  हैं। उनके अभिभावकों के भी संपर्क में रहते हैं। कहा जाता है कि भारत में दुनिया भर में सबसे अधिक युवा आत्महत्या दर है। इस बीच, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2020 में हर 42 मिनट में एक छात्र ने अपनी जान दे दी। यह आंकड़ा सच में डराता है।

  नौजवानों को बिल्कुल रीलेक्स माहौल देना होगा , ताकि वे बिना किसी दबाव में पढ़ें या जो भी करना चाहते हैं, करें। हरियाणा के सोनीपत में सेंट स्टीफंस कैम्ब्रिज स्कूल चलाने वाली दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी (डीबीएस) के अध्यक्ष और सोशल वर्कर ब्रदर सोलोमन जॉर्ज कहते हैं कि हम पूरी तरह से सुनिश्चित करते हैं कि हमारे स्कूल या सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे बिना किसी दबाव में पढ़े-लिखे। हम अपने अध्यापकों की भी क्लास लेते हैं कि किसी भी बच्चे के साथ कक्षा में उसकी जाति न पूछी जाए और या न ही उसके पिता की आय। कुछ गैर-जिम्मेदार अध्यापक अपने विद्यार्थियों से इस तरह के गैर-जरूरी सवाल पूछते हैं। फिर वे एक ही कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों की एक-दूसरे से तुलना भी करने लगते हैं। इस कारण वे जाने-अनजाने एक बच्चे को बहुत सारे बच्चों को  कमजोर साबित कर देते है। जाहिर है, इस वजह से उस छात्र पर बहुत नकारात्मक असर पड़ता है जो कमतर साबित कर दिया गया होता है। इसी तरह के बच्चे कई बार निराशा और अवसाद में डूब जाते हैं। देखिए बच्चे को पालना एक बीस वर्षीय प्लान है। कौन नहीं चाहता कि उसका बच्चा समाज में ऊंचा मुकाम हासिल करे, शोहरत-नाम कमाए?  पर इन सबके लिए ज़रूरी है कि बच्चे को उसकी काबिलियत और पसंद के अनुसार मनचाहा करियर चुनने की आज़ादी भी दी जाए। यह एक कड़वा सच है कि हमारे समाज में सफलता का पैमाना अच्छी नौकरी, बड़ा घर और तमाम दूसरी सुख-सुविधाएं ही मानी जाती है।अफसोस कि हम भविष्य के चक्कर में अपने बच्चों को  आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर मजबूर करने लगे हैं। ब्रदर सोलोमन जॉर्ज कहते हैं कि हम अपने यहां बच्चों को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि वे कठिन  परिस्थितियों का भी सामना करें। असफलता से हार मान लेने से जीवन नहीं चलता। यह तो कायरता है। महान कवि पद्मभूषण डॉ० गोपाल दस नीरज की पंक्तियाँ याद आ रही हैं, “ छुप- छुप अश्रु बहाने वालों , जीवन व्यर्थ लुटाने वालों , इक सपने के मर जाने से , जीवन नहीं मरा करता हैं।” सफलता और असफलता का चक्र तो चला करता है । उसे स्वीकार करने में ही भला है।

  राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के  आंकड़ों से पता चला है कि 2020 में, जब कोविड- की लहर ने व्यापार को तबाह कर दिया था, तब 11,716 व्यापारियों ने आत्महत्या की थी, जो 2019 की तुलना में 29% अधिक थी, जब 9,052 व्यापारियों ने अपनी जान ले ली थी।

 कर्नाटक में 2020 में व्यवसायियों द्वारा आत्महत्या से सबसे अधिक मौतें (1,772) दर्ज की गईं – जो 2019 से 103% अधिक है, जब राज्य में 875 व्यवसायियों ने अपनी जान ले ली थी।महाराष्ट्र में 1,610 व्यवसायियों ने आत्महत्या की, जो पिछले वर्ष से 25% अधिक है, और तमिलनाडु में 1,447 की मृत्यु हुई, जो 2019 से 36% अधिक है। यह सबको पता है कि भारत के व्यवसायी समुदाय का बड़ा हिस्सा सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों  से जुड़ा है,जो   बड़े झटकों को सहन नहीं कर पाता है।   इसके चलते कई कारोबारियों ने कर्ज में डूबने या बिजनेस में नुकसान के कारण आत्महत्या कर ली। लब्बो लुआब यह है कि भारत में युवाओं और कारोबारियों के साथ – साथ अन्य लोगों के आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को भी प्रभावी ढंग से रोकना ही होगा।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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