कसक: काश वाराणसी का प्राचीन वैभव देख पाती

दुनिया भर में लोग अपनी ऐतिहासिक धरोहरों का संरक्षण करने में लगे हुए हैं। हमारे यहाँ ऐतिहासिक धरोहरों को ध्वंस करने की मुहिम चल रही है। उस पर तुर्रा ये है कि हम इतने गाफिल हैं कि हमें लगता है कि ये विकास है। ठीक है कि हम प्राचीनता के सौंदर्य को समझने की सलाहियत नहीं रखते हैं, इसलिए नया चाहते हैं, लेकिन क्या सरकार के पास भी यह सलाहियत नहीं है।

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-अमिता नीरव-

amita neerav
डॉ अमिता नीरव

प्राचीनता का सौंदर्य हमारे समक्ष तभी खुलता है, जब हम उसे समझने के लिए न सिर्फ प्रस्तुत हों, बल्कि हम उसे समझने के स्तर तक परिष्कृत हो चुके हों। अपने खुद के जीवन के अनुभव से यह समझ पाई है कि नयापन हरेक को चौंधियाने की क्षमता रखता है। जब तक आप बहुत धैर्य, समझ, परिष्कार और उस दृष्टि के साथ प्राचीनता से रूबरू नहीं होते हैं, तब तक वह अपना सौंदर्य, अपनी भव्यता, अपना लावण्य हमारे समक्ष नहीं खोलती है। इसलिए अक्सर हम पुरानी चीजों को लेकर बहुत सकारात्मक, बहुत उत्सुक नहीं होते हैं।

एवलिन आज बता रही थीं कि सेकंड वर्ल्ड वॉर के दौरान यूरोप में जितना विध्वंस नहीं हुआ उससे ज्यादा विध्वंस वॉर के बाद हुआ। वही, हर पुरानी चीज को ध्वस्त करने का पागलपन…। वर्ल्ड वॉर के दौरान जब जर्मनी ने फ्रांस पर विजय पा ली थी तो हिटलर ने फ्रांस को ध्वस्त करने के आदेश दे दिए थे। जिस ऑफिसर को यह आदेश मिला था, उसने उसे पूरा नहीं किया औऱ इस तरह से फ्रांस अपनी प्राचीनता को बचा पाया।

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वे अपने पिता के शहर हैमलिन के बारे में बता रही थीं। यह वही शहर है, जहाँ से पाइड पाईपर औऱ चूहों की कहानी का संबंध है। वे बता रहीं थी कि 1972 में हैमलिन शहर के सारे पुराने कंस्ट्रक्शंस को गिराकर नए बनाने की मुहिम चली थी। उस वक्त शहर के पाँच लोगों ने शहर के हर घर जाकर लोगों को यह समझाने की कोशिश की थी कि मुहिम का विरोध किया जाना चाहिए। किस्मत से वहाँ के लोगों को उन चंद लोगों की बात समझ आ गई और हैमलिन अपनी प्राचीनता को खत्म होने से बचा पाया, हालाँकि तब तक आधे शहर को नया किया जा चुका था। आज हैमलिन जर्मनी में पर्यटन के केंद्र के तौर पर जाना जाता है।

हमारे यहाँ मौजूदा सरकार हर प्राचीनता को नष्ट करने पर आमादा-सी दिखती है। जलियांवाला बाग से शुरू हुआ सिलसिला काशी, उज्जैन और अब मथुरा-वृंदावन तक पहुँचता दिखाई दे रहा है। दुनिया भर में लोग अपनी ऐतिहासिक धरोहरों का संरक्षण करने में लगे हुए हैं। हमारे यहाँ ऐतिहासिक धरोहरों को ध्वंस करने की मुहिम चल रही है। उस पर तुर्रा ये है कि हम इतने गाफिल हैं कि हमें लगता है कि ये विकास है। ठीक है कि हम प्राचीनता के सौंदर्य को समझने की सलाहियत नहीं रखते हैं, इसलिए नया चाहते हैं, लेकिन क्या सरकार के पास भी यह सलाहियत नहीं है।

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जब कभी पत्थर, सीमेंट, लोहे से बने एक जैसे भवन देखती हूँ, तब मन को तकलीफ होती है कि हम अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को खुद किस तरह से नष्ट कर रहे हैं, किस तरह से उसे बदसूरत कर रहे हैं। बनारस यात्रा में ये कसक बहुत शिद्दत से उभरी कि काश वाराणसी का प्राचीन वैभव देख पाती। इस वक्त तो कॉरीडोर वैसा ही है, जैसा नए मंदिरों में हुआ करता है। अब वहाँ प्राचीनता के अवशेष तक नहीं मिलते हैं।

इतिहास में नाम दर्ज करवाने की जिद्द को पूरा करने के लिए इतिहास को मिटाया जा रहा है। भविष्य हमें इसके लिए शायद ही माफ करे।

(डॉ अमिता नीरव लेखिका, पत्रकार और डिज़िटल क्रिएटर हैं)

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