क्या हम बर्बर युग में प्रवेश कर रहे हैं ?

कहो तो कह दूं…

– बृजेश विजयवर्गीय-

बृजेश विजयवर्गीय

मैं सोच रहा था कि राजनीति के विषयों पर लिखकर अनावश्यक बहस को न्यौता देना है, लेकिन जब देश और समाज को झकझोरने वाली विभत्स घटनाऐं समाने आती हैं तो चुप भी नहीं रहा जा सकता। दुर्भाग्य से हम और हमारी संसद में बैठे लोग भी समस्या के समाधान के प्रति इतने उत्सुक नहीं दिखे, जितने अपने दलों के प्रति निष्ठा जताने में है। मुझे लगता है कि हम़ ़त्रेता, द्वापर और कलयुग के बाद बर्बर युग में प्रवेश कर रहे हैं। प्रश्न उठता है कि द्रोपदी की लाज बचाने कौन आएगा? क्या मणिपुर जैसी घटनाओं के लिए दोषी सिर्फ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ही हैं जो इस संविधान में संशोधन करके देश और समाज के लोगों की रक्षा नहीं कर पा रहे। क्या राज्यों के मुख्यमंत्रियों को जिम्मेदारी नहीं निभानी चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि प्रधान मंत्री और गृहमंत्री कुछ नहीं कर रहे। गृहमंत्री ने मणिपुर का दौरा भी किया था और सर्वदलीय बैठक भी बुलाई। सरकार को कुछ और बड़ा करना चाहिए चाहे संविधान में क्यों न बड़ा बदलाव करना पडे।
भारत पूछ रहा है कि यदि संविधान में कोई बाधा है तो क्यों न हम इस संविधान को लेकर पूजते रहें ? पता नहीं क्या बाध्यताऐं है जो पूर्ण बहुमत प्राप्त सरकारें भी इन वारदातों को नहीं रोक पा रही। अमरीकी राष्ट्रपति के दौरे के समय दिल्ली में हिंसा के दौरान 100 से अधिक लोगों की जानें चलीं गई। क्या राजधानी की कानून व्यवस्था को यूं ही छोड़ दिया जाना चाहिए।
राजस्थान में बम ब्लास्ट के आरोपियों को खुद सरकार बचाती है तो समझ सकते हैं कि किस प्रकार का प्रशासन चल रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार में संगीन हत्याकांडों के आरोपी सांसद और विधायक तक बनते रहे है। संसद इनके प्रति कृतज्ञता जताती है तो क्या ऐसे प्रोटोकोल को त्यागना नहीं चाहिए। ये कैसा प्रोटोकॉल है जो निर्दाेष लोगों की रक्षा नहीं कर सकता और दोषियों को श्रद्धांजलि देता हो।
लोगों का कनून व्यवस्था में विश्वास नहीं है तो कानून व्यवस्था के जिम्मेदारों को अपनी जिम्मेदारी पूर्ण करनी चाहिए। मणिपुर की घटनाओं पर जो प्रतिक्रियाऐं आ रही हैं उनसे लगता है कि हमारे देश में महिला अत्याचारों या किसी भी प्रकार की घटनाओं पर अलग अलग पैमाने है। इस पर संसद भी विभाजित है कि विपक्षी दल सिर्फ मणिपुर पर चर्चा चाहते हैं अन्य दुष्कर्म की घटनाओं पर नही ंतो कैसे कोई ईमानदारी से रोकथाम पर आगे बढ़ सकेंगे। मणिपुर की घटनाऐं शर्मनाक हैं तो पश्चिमी बंगाल और राजस्थान, केरल या अन्य राज्यों में होने वाली घटनाऐं कैसे जायज ठहराई जा सकतीं हैं। मणिपुर के कांग्रेस से भाजपा में आए मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह जो खुद एक पत्रकार रहे हैं और पूर्व में फुटबाल के खिलाड़ी रहे हैं । उनसे भी सवाल है कि क्या शासन चलाना फुटबाल का मैदान है जहां बॉल को गोल के लिए ही पैरों से उछाला जाता है। फुटबॉलर को पता नहीं है कि खुद की टीम के खिलाफ ही गोल दाग रही है। क्या राजनीति भी खेल का मैदान मात्र है या कर्त्तव्य पालन की भी जिम्मेदारी है। यही बातें देश के अन्य सभी राज्यों की सरकारों पर भी लागू होती है। मीडिया की तो क्या बात करें हर घटना में उसे दलित और पीडित की जात नजर आती है। अत्याचार तो किसी के भी साथ हो अत्याचार ही है।
चर्चा मणिपुर से शुरू हुई है तो वहां की राजनीतिक परिस्थितियों को जाने बिना अधूरी ही रहेगी। 30 प्रतिशत कुकी और नगा लोगों जो अपना धर्म परिवर्तन के जरिए ईसाई बनाए गए है जिन्हें अब आदिवासी कहने लगे है। अफीम की खेती इनका मुख्य काम है। दूसरा यहां का 53 प्रतिशत मूूल मैतेई हिंदू समाज है जिसकी आबादी काफी कम हो गई है। व्यवसाय में कुकी लोग हावी हो चुके हैं और सेना तक को चुनौती दे रहे है। मैतेई समाज को लगता है कि उनके अधिकारों पर हमला हो रहा है। समस्या की जड़ यहीं पर है। दलगत राजनीति से समस्या और भड़क रही है।
समुदायों में संघर्ष के कारणों पर गौर करे बिना समाधान संभव नहीं। मुख्यमंत्री मैतेई समुदाय से है। पिछले तीन महिने से अधिक समय से हो रही हिंसात्मक वारदातों में मंत्रियों के बंग्ले तक फूंक दिए गए। यानी सरकार में बैठे लोग भी सुरक्षित नहीं है तो कैसे जनता की रक्षा होगी। व्यवस्था खुद डरी हो तो वहां की हालात की कल्पना की जा सकती है।
सभी सरकारों को चाहिए कि देश को धर्मांतरण, जातिवाद, अल्पसंख्यक वाद, आरक्षित और अनारक्षित वर्ग में बांटने तथा तुष्टिकरण आदि से लोगों को भ्रमित करने का प्रयास अब बंद कर देना चाहिए। धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण होने में देर नहीं लगेगी। ये समस्याऐं सिर्फ पूर्वाेत्तर राज्यों की ही नहीं है देश के हर प्रांत की यही कहानी है। यदि संसद और विधान सभाऐं न्यायपालिकाऐ समस्याओं पर मूक दर्शक है तो हमें क्या मणिपुर से अधिक विभत्स घटनाओं का इंतजार करना चाहिए? यदि सरकार है तो लगना भी चाहिए कि सरकार है। सरकार है ये तो सरकार में बैठे लोगों की ही तय करना होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं एक्टिविस्ट हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)

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