
-देशबन्धु में संपादकीय
जम्मू-कश्मीर के गांदरबल जिले में रविवार को एक बड़ा आतंकी हमला हुआ, जिसमें कम से कम 7 लोग मारे गए हैं। मृतकों में प्रवासी मजदूरों समेत एक डॉक्टर शामिल हैं। आतंकियों ने इस बार उन नागरिकों को अपना निशाना बनाया है जो निर्माण कार्य में संलग्न थे। गांदरबल जिले के गगनगीर इलाके में श्रीनगर-लेह नेशनल हाईवे पर ज़ेड-मोड़ सुरंग बनाई जा रही है जो सोनमर्ग को सीधे लेह से जोड़गी। यह ऑल वेदर सुरंग केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक है। इस हमले की जिम्मेदारी द रेजिस्टेंस फ्रंट यानी टीआरएफ ने ली है, जो लश्कर-ए-तैयबा का ही एक संगठन है। 2019 में अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद टीआरएफ ज्यादा सक्रिय हुआ। पहले इस आतंकी संगठन के निशाने पर अधिकतर कश्मीर पंडित रहते थे, लेकिन अब यह गैर कश्मीरियों और सिखों को निशाना बना रहा है। 2019 के बाद हुए कई हमलों की जिम्मेदारी लश्कर नहीं, बल्कि टीआऱएफ लेता रहा है।
टीआरएफ जिस तरह से कश्मीरी पंडितों, प्रवासी कामगारों, सरकारी अधिकारियों और सैन्य बलों को पिछले पांच सालों में निशाना बनाता रहा है, उससे जाहिर है कि उसके पीछे जो ताकतें खड़ी हैं, वे कश्मीर में किसी भी हाल में शांति नहीं चाहती हैं और न ही सामान्य जनजीवन देखना चाहती हैं। इसलिए इस बार गांदरबल इलाके में हमला किया गया, क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर के नए मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का निर्वाचन क्षेत्र है और जम्मू-कश्मीर के बाकी इलाकों की अपेक्षा शांत माना जाता रहा है। मगर अब यहां के लोगों में भी दहशत फैलाने की कोशिश की गई है। सुरंग के निर्माण कार्य में लगे लोग जब दिन भर के काम के बाद लौटे ही थे कि उन पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई गईं। जाहिर है हमलावरों का मकसद जान-माल का भारी नुकसान पहुंचाना था।
आतंकवादियों के मंसूबे जाहिर हो चुके हैं, अब केंद्र और राज्य सरकार को तय करना है कि वे इस मुश्किल घड़ी में किस तरह मिलकर काम करते हैं। 10 साल बाद ही सही, लेकिन जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए और शांतिपूर्ण तरीके से हुए यह कश्मीर की जनता की बड़ी जीत है। आतंकियों के लिए यह करारा सबक है कि उनकी दहशतगर्दी लोकतांत्रिक भावनाओं को कुचल नहीं पा रही है और शायद इसलिए इस तरह का हमला किया गया है।
केंद्र और राज्य की सत्ता पर बैठे लोगों ने फौरन इस हमले की कड़ी निंदा की है, लेकिन इसके साथ ही क्षुद्र राजनीति भी शुरु हो गई है। जैसे केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने इस पर फौरन हिंदू-मुसलमान की राजनीति शुरु कर दी और कहा – ‘मैं राहुल गांधी और फ़ारुख़ अब्दुल्ला से पूछना चाहता हूं कि जब आतंकवादियों को समर्थन देने वाली सरकार हो तो ये घटना होना स्वाभाविक है। इनकी जुबान तो खुलेगी नहीं ये तो ग़ज़ा के लिए ट्वीट करेंगे। ऐसे में हिंदू मारा गया है तो सरकार तो उन्हीं की है। मोरा सैय्या कोतवाल तो डर काहे का।’
गिरिराज सिंह का भले ही बिहार के बाहर कोई जनाधार नहीं हो, लेकिन वे मोदी सरकार में मंत्री हैं, इस नाते उनकी बात पर सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि इस बारे में वो अपना रुख भी स्पष्ट करे। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने तो हमले की निंदा करते हुए दोषियों को न बख़्शने की बात कही है। लेकिन उन्हें यह भी बताना चाहिए कि क्या इस हमले में जिस तरह कांग्रेस और एनसी के नेताओं पर सवाल उठाए गए हैं, क्या वे उससे सहमत हैं। और अगर वे सहमत नहीं हैं तो फिर गिरिराज सिंह के बयान से भाजपा को खुद को अलग करके बताना चाहिए। क्योंकि जिस तरह गिरिराज सिंह ने इस मामले में हिंदुओं के मरने पर सवाल उठाया, उससे जाहिर है कि उन्होंने पूरी खबर जाने बिना ही फौरन राजनैतिक फायदे के लिए तथ्यहीन आरोप लगा दिए। इस आतंकी हमले के मृतकों में हिंदू, मुस्लिम, सिख सभी शामिल हैं। वैसे भी आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और वह धर्म देखकर किसी को निशाने पर भी नहीं लेता। क्योंकि आतंकवादी केवल व्यवस्था को बिगाड़ कर अराजकता और दहशत फैलाना चाहते हैं।
जम्मू-कश्मीर में व्यवस्था को पटरी पर आते देख यह हमला किया गया है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस हमले पर अंग्रेजी में ट्वीट किया और इसमें उन्होंने मिलिटेंट शब्द का इस्तेमाल किया। अब इसी को लेकर उमर अब्दुल्ला को सोशल मीडिया पर ट्रोल किया जा रहा है कि टेरेरिस्ट यानी आतंकी की जगह उन्होंने मिलिटेंट यानी उग्रवादी शब्द का इस्तेमाल किया। उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य बनाने का प्रस्ताव भी कैबिनेट से पारित करवाया है और उपराज्यपाल से इसकी मंजूरी भी मिल गई है, इस पर भी उन्हें आगाह किया जा रहा है कि पूर्ण राज्य बनाने का उनका सपना अधूरा रह सकता है। इस तरह की बातें न केवल संवेदनहीन और अदूरदर्शितापूर्ण हैं, बल्कि राज्य में शांति और स्थिरता कायम करने की कोशिशों में बाधा भी खड़ी करती हैं। जम्मू-कश्मीर में 10 साल बाद नयी सरकार को अभी व्यवस्था को संभालने और पटरी पर लाने में थोड़ा वक्त लग सकता है। ऐसे में केंद्र सरकार पर ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है कि जिस राज्य को पूर्ण राज्य से उसने केंद्र शासित राज्य में तब्दील कर दिया था और दावा किया था कि इससे विकास और शांति का मार्ग प्रशस्त होगा, वह दावा धरातल पर खरा उतरता दिखाई दे।
2016 में नोटबंदी के वक्त नरेन्द्र मोदी ने आतंकवाद पर रोक लगने की बात कही थी, फिर अनुच्छेद 370 की समाप्ति पर भी यही दावा था। अभी चुनाव प्रचार में श्री मोदी ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद आखिरी सांसें ले रहा है। लेकिन इस हमले के बाद उन्हें अब इन लच्छेदार बातों से ऊपर उठकर गंभीरता से बताना चाहिए कि आखिर जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद को पूरी तरह ख़त्म करने की कोई रणनीति, योजना उनके पास है या यहां की जनता इन्हीं लच्छेदार बातों के सहारे अपने अच्छे दिनों की बाट जोहती रहे।