
-सुनील कुमार Sunil Kumar
छत्तीसगढ़ के रायपुर में पति की हत्या करने वाली एक महिला को अदालत ने उम्रकैद सुनाई है। मामूली घरेलू विवाद में उसने पति के सिर पर लोहे की रॉड से हमला कर दिया था, और मौके पर ही वह मर गया था। अब तीन बरस बाद पत्नी, मोतिम साहू को उम्रकैद हुई है। इससे परे देशभर में जगह-जगह अनगिनत ऐसे मामले सामने आ रहे हैं, जिनमें घरेलू हिंसा का यह एक अभूतपूर्व पहलू उभरकर दिख रहा है कि पत्नियां भी पति को मार रही हैं। और किसी विवाद के चलते हुए, तनाव के पल में उत्तेजना से मार दिया हो, ऐसा भी नहीं, कई पत्नियां अब सोच-समझकर साजिश बनाकर, प्रेमी, भूतपूर्व प्रेमी, या भावी प्रेमी के साथ मिलकर भी पति को निपटा रही हैं। इससे जितनी जरूरत पतियों के डरने की है, उससे अधिक जरूरत पतियों और बाकी परिवार, या समाज के सावधान होने की भी है। आज ही के अखबार में छत्तीसगढ़ की एक दूसरी खबर है कि एक बहू ने ऊपर की घटना की तरह ही, लोहे के रॉड से अपनी सास को निपटा दिया क्योंकि वह उसकी गालियों और तानों से थकी हुई थी। इसीलिए हम यह चाहते हैं कि पूरे के पूरे परिवार इस बदलती हुई स्थिति को समझें कि महिला अब ऐसी अबला नहीं रह गई है कि उसे तबला समझकर ठोक दिया जाए, अब वह जवाबी हमला भी कर सकती है। अगर समाज के समझने के लिए कुछ बुरी मिसालों से कम से काम नहीं चल सकता, तो फिर नीले ड्रम की मिसाल तो सबको याद रखनी ही चाहिए। एक मासूम सा नीला ड्रम, एक बड़ा प्रतीक बन गया है, इसे महिला सशक्तिकरण का प्रतीक तो हम नहीं मानते क्योंकि महिलाओं का सशक्तिकरण तो जिंदगी के अनगिनत अहिंसक दायरों में भी हो रहा है, और देश और दुनिया को उसका फायदा भी मिल रहा है। लेकिन आज महिलाएं तरह-तरह के प्रेम-त्रिकोणों में बराबरी से हिंसा कर रही हैं, जिनसे सभी को सावधान हो जाने की जरूरत है क्योंकि अभी तक उसे महज पिटने का सामान मान लिया गया था, अब वह पीट-पीटकर जिंदगी ले भी रही है।
हम अभी औरत और मर्द के बीच हिंसा के अनुपात को लेकर बात आगे बढ़ाना नहीं चाहते, क्योंकि वह एक अलग ही विश्लेषण और बहस का एक पूरा फैमिली साइज का मुद्दा है। अभी हम किसी भी किस्म की पारिवारिक, खासकर दांपत्य जीवन की हिंसा के बारे में चर्चा करना चाहते हैं कि अब पहले के मुकाबले यह बढ़ती क्यों चल रही है, और इससे निपटने के लिए, इसके समाधान के लिए क्या किया जाना चाहिए। समाज व्यवस्था, विवाह और परिवार व्यवस्था खत्म होने वाले नहीं है, ये तो बने ही रहेंगे, इसलिए इनके अस्तित्व पर आ रही आंच से बचाव के बारे में सोचना जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है कि दुनिया के बहुत से देशों में अब लोग कई अलग-अलग वजहों से विवाह व्यवस्था से परे जा रहे हैं। लोग अधेड़ हो जा रहे हैं, और न शादियां कर रहे हैं, न प्रेम-संबंधों में पड़ रहे हैं, बल्कि उन देशों की आबादी खतरे में पड़ रही है। इसलिए हम भारत जैसे समाज में दांपत्य जीवन पर पहले के मुकाबले अधिक मंडराते हुए खतरों पर चर्चा करना चाहते हैं। एक वक्त था जब भारतीय लडक़ी को मां-बाप दान में देकर किसी भी नालायक खूंटे से बांध देते थे, जो कि अब मुमकिन नहीं रह गया है। अब लड़कियां भी पढ़ी-लिखी हैं, कामकाजी हैं, और उनकी अपनी पसंद और चाहत भी है। अक्सर ही मां-बाप खूंटा खुद पसंद करते हैं, लेकिन बाद में उनकी गाय सरीखी लडक़ी अपनी चाहत के चलते, हिंसा और गालियों के खिलाफ उस खूंटे से रस्सी छुड़ाकर निकल भी जाती हैं। और ऊपर जिन दो घटनाओं का जिक्र हमने किया है, ऐसे परिवारों से निकलकर जेल जाने के पहले वह पति या सास को अपने सींगों से निपटाकर भी जाती हैं। इसलिए आज समाज में शादी के पहले के विचार-विमर्श और परामर्श की जरूरत पहले के मुकाबले बहुत अधिक है। अब गाय और खूंटे वाला युग जा चुका है, और अब दुपहिए और मोबाइल पर चलने वाली जींस और टी-शर्ट की लडक़ी का युग आ चुका है, जिसे बंधुवा मजदूर की तरह रखना मुमकिन नहीं है।
आज मुद्दे की बात यह है कि कुंडली मिलाने के बजाय दोनों परिवारों को लडक़े-लड़कियों की मेडिकल रिपोर्ट मिलानी चाहिए कि उनमें कोई ऐसी जेनेटिक समस्या तो नहीं है जो कि आगे जाकर अगली पीढ़ी को कोई गंभीर बीमारी दे जाए। दोनों परिवारों को एक-दूसरे के लडक़े-लडक़ी के बारे में मेडिकल स्थिति का पता रहना चाहिए। इसके अलावा समाज को आज ऐसे पेशेवर परामर्शदाताओं की जरूरत है जो कि अपनी पसंद से, या कि परिवार की पसंद से शादी करने की कगार पर खड़े हुए लडक़े-लडक़ी से बात करके यह अंदाज लगा सकें कि वे स्वर्ग से एक-दूसरे के लिए बनाकर भेजे गए हैं या नहीं, या कि वे एक-दूसरे की जिंदगी को नर्क बनाने की पूरी संभावना रखते हैं?
ऐसे परामर्श के बिना होने वाली शादियों में आज जगह-जगह खतरे भी आ रहे हैं, और अगर सतह पर आने वाले खतरों के बिना ऐसी शादियां अगर टिक रही हैं, तो वे भारी तनाव और कुंठाओं से लदी हुई चल रही हैं। ऐसे बहुत से परिवार विवाहेत्तर संबंधों का खतरा भी उठाते हैं, क्योंकि इश्तेहारों के ठीक उल्टे, ऐसी जोडिय़ां मेड फॉर ईच-अदर नहीं रहतीं। फिर यह भी है कि अब दुनिया में लडक़े-लडक़ी, औरत मर्द, इन सबका उठना-बैठना इतना अधिक रहता है कि लोगों के बीच विवाह से परे के रिश्ते बनने के खतरे, या संभावना, जिस भी नजरिए से देखें, वह पहले के मुकाबले कई गुना अधिक है। फिर अब तो सोशल मीडिया ने और संचार सुविधाओं ने इतनी संभावना पैदा कर दी है कि पाकिस्तान से एक सीमा चार बच्चों को लेकर बिना भारतीय वीजा के नेपाल के रास्ते दिल्ली आकर अपने गरीब ऑनलाइन-आशिक के घर पर डेरा डाल देती है, और हिंदुस्तान इसी बात पर कॉलर खड़ी करके घूमने लगता है कि एक पाकिस्तानी महिला, एक हिंदुस्तानी पर इस हद तक फिदा है। यह एक अलग लिखने का मुद्दा है कि भारतीय राष्ट्रीय गौरव कहां पर जाकर टिक गया है, लेकिन इस पर फिर कभी।
भारत में परंपरागत तरीके से शादियां तय करने के जो पैमाने हैं, वे पेनिसिलीन की तरह आउटडेटेड हो चुके हैं, और वे एक वक्त घरों में तार से जुड़े रहने वाले बड़े-बड़े काले टेलीफोन सरीखे हैं। आज जोडिय़ां बनाने की जरूरत स्मार्टफोन जैसे पैमाने मांगती है, और लोगों को पुराने अंदाज में नए रिश्ते तय करना बंद करना चाहिए। अगर भारतीय समाज में पारिवारिक माहौल ठीक रखना है, तो अब खूंटे और गाय की सोच खत्म करना होगा, अब औरत-मर्द को किसी गाड़ी के दो चक्कों की तरह, या कि जिंदगी के हल में जुते हुए दो प्राणियों की तरह बराबरी से रहना होगा। लेकिन हजारों बरस की मर्दाना सोच यह बराबरी मुमकिन नहीं करने देती। आज शादी के रिश्ते तय करने के पहले लोगों को एक बिल्कुल नए तरीके से, नई सोच के साथ विचार-विमर्श करना होगा, वरना नीला ड्रम नाहक ही बदनाम होते रहेगा।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)