-बृजेश विजयवर्गीय-
कोटा। इस बार मानसून ने खुलकर मेहर की तो विभिन्न भागों में वर्षा से जल प्लावन के हालात पैदा हो गए। वर्षा ने एक बार फिर प्रशासनिक व्यवस्थाओं की पोल खोल दी है। वर्षा का आंकड़ा बहुत ज्यादा नहीं है और कोटा में तो डायवर्जन चैनल बनने के बाद कहा गया था कि अब बाढ़ नहीं आऐगी लेकिन फिर क्या हो रहा है। समस्या यह है कि बांधों की वजह से नदियों में पूरे साल पानी नहीं बहता और गंदगी और कचरा सड़ता है। चंबल नदी के केचमेंट एरिया में जोरदार वर्षा के कारण कोटा बैराज से 13 गेट खोलकर विशाल जलराशी की निकासी के बावजूद कोटा का किशोर सागर तालाब जलकुंभी से अटा है। जब सिंचाई के लिए नहरों में पानी छोडा जाता है तब यही जलकुंभी आगे बहकर जाती है और जगह-जगह जल प्रवाह को प्रभावित करती है।
नगरीय शासन प्रणाली काफी हद तक जिम्मेदार
वर्षा काल में नदी किनारों पर बस्तियां जलमग्न दिखाई देती हैं और शहरों व कस्बों तथा गांवों में भी कथित बाढ़ नालियों के कारण आ जाती है। इन हालातों को अपन चार दशकों से देख रहे हैं। इन दुर्भाग्यपूर्ण हालातों के लिए हमारी नगरीय शासन प्रणाली काफी हद तक जिम्मेदार है। जलप्लावन उतरते ही प्रशासन तान खूंटी सो जाता है। प्रभावितों को कुछ मुआवजा मिल जाता है और जिंदगी वैसी ही चलती रहती है। कचरा प्रबंधन का घिसा पिटा मॉडल चलता रहा है। गांव कस्बों ही नहीं शहर की पॉश कालोनियों की नालियों के जल निकासी की व्यवस्था अतिक्रमण का शिकार है। जिन लोगों ने पॉश कॉलोनियों में आलीशान कोठियां और बंगले बना रखे हैं उन्होंने भी नालियांें और यहां तक कि सडक तक पर अतिक्रमण कर रखा है। इस वजह से बारिश के पानी की सही तरीके से निकासी नहीं हो पाती और सडकों पर पानी बहता है। इससे डामर हटने से सडक का टूटना स्वाभाविक है। यही कथित नालियों, नालों का अवरुद्ध पानी करोड़ों की सड़कों को हर साल बहा ले जाता है!विडम्बना यह है कि बारिश में सडकें टूटने का रोना तो सभी रोते हैं लेकिन अपनी गिरेबान में नहीं झांकते कि इसके पीछे उनके अतिक्रमण का भी कम योगदान नहीं है। प्रशासन तो इन तथाकथित रसूखदारों की ओर आंख उठाकर देखने की हिम्मत भी नहीं करता।
नदियां और नालों को कचरा डम्पिंग यार्ड बना दिया
प्रधान मंत्री की स्वच्छ भारत की अपीलों के बावजूद नगरीय प्रशासन पुराने ढर्रे पर ही लकीर पीट रहा है। नदियां पूजनीय होने के बावजूद कचरे से अटी पड़ी है। नदियां और नालों को कचरा डम्पिंग यार्ड बना दिया है। पानी को तो बहने के लिए रास्ता चाहिए। रास्ता नहीं मिलता तो नालियों से ही बाढ़ आती है। नाले नदियों के किनारे अवैध बस्तियां रातों रात खड़ी नहीं हुई। तालाबों पर राजनीतिक संरक्षण में अतिक्रमण और कचरा यार्ड बनाने में प्रशासन को शर्म नहीं आती। कोटा में सफाई का सर्वश्रेष्ठ मॉडल सोलिड लिक्विड रिसोर्स मेनेजमेंट (एसएलआरएम) राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में फाइलों में गुम हो गया है। प्रशिक्षण प्राप्त कर्मचारी बेकार हो गए।
हर शहर और हर डगर की यही कहानी
हर जगह नगर पालिकाओं में लचर प्रशासन के चलते न तो पर्याप्त प्रशिक्षित कर्मचारी हैं और न ही कोई नीतियां। नदियों व तालाबों के किनारों पर अतिक्रमणकारियों को पट्टे दे दिए जाते हों तो फिर तो कहने ही क्या। कानूनन कोई भी नदियों के एक किलोमीटर तक नहीं बस सकता और जल स्त्रोतों पर अतिक्रमण नहीं हो सकता। जबकि तस्वीर ठीक इसके उलट है। हर शहर और हर डगर की यही कहानी है। मेरा तो यही कहना है कि बाढ़ से बचना है तो नदियों को बहने दो…
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं जल बिरादरी से संबद्ध हैं)
यह पोस्ट वास्तविकता से रूबरू करती है।यह 100% सत्य है कि इन हालातों के जिम्मेदार सरकार, प्रशासन और स्वयं आम नागरिक भी हैं। शायद सभी इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि समय निकला और सब भूले।