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-मनु वाशिष्ठ-

सब्जी पर बात करते हुए पुरानी यादें ताजा हो गईं। पुराने समय में सब्जी पर कुछ भी खर्च नहीं था, जिसके पास नहीं था उसका भी काम आराम से चलता था।
आज इतना कुछ है, बेमौसम की सब्जियां बारह महीने मिलती हैं। इससे ना तो सब्जियों का स्वाद अच्छा लगता है, ना ही मौसम की नई सब्जी का क्रेज रहता है। फिर भी समस्या है क्या बनेगा?
पहले बिना किसी खर्चे के, मौसम के हिसाब से सब्जियां मिलती और बनती थी। तीस चालीस लोगों के परिवार में, क्या बनेगा? पूछने का रिवाज ही नहीं था।
वो ही बनता जो, जरूरत होती या सुलभता से मिलता।
अरबी/ भिंडी/ कद्दू कभी कभी, दही वाला आलू का झोल हमेशा चलता।
आलू, मैथी, बथुआ परांठे संग धनिए की चटनी साथ निभाती।
कैरी संग हरी मिर्च, पुदीने की चटनी भी गजब स्वाद बढ़ाती।
वैशाख, ज्येष्ठ में आम के पेड़ से टूटी कैरी का #पना, लू वाली गर्मियों में ठंडक पहुंचाता। साथ में साल भर के लिए अचार, मुरब्बा भी डलवाता।
सावन भादों में आलू, दाल या गर्मियों में दाल से बनी मंगौड़ी की सब्जी, थाली में शोभा पाती।
पत्ते वाली सब्जियों, बैंगन, अरबी से थोड़ी दूरी रखी जाती।
बिटौरे (बारिश से बचाने के लिए उपलों को रखने की जगह) के ऊपर चढ़ आई तोरई की बेल से बुजुर्गों की ही नहीं, सभी की थाली में दो महीने का इंतजाम हो जाता।
तो कभी मां लौकी के बीज छिड़क कर उसकी बेल को छप्पर पर चढ़ा देती। ये लौकी घीया मां की रसोई में, रायता, सब्जी, दाल के साथ मिल कर दो महीने और थाली की शान बढ़ाता।
सेम की बेल पर इतनी ढ़ेर फलियां होती, फलियों से मुहल्ले का मन भर जाती। कभी कभी अम्मा सब्जी वाले से, फली के बदले, गोभी टमाटर ले आती।
क्वार कार्तिक में खेत से लौटते हुए अम्मा टेंटी, वन करेला (ककौड़े) तोड़ लातीं। ग्वार की फलियां सर्दियों में सुखा कर, गर्मियों में भी खाई जाती।
बीच बीच में त्यौहार भी तो आते थे।
साथ में पूरी/ पकवान/ मिठाई की सौगात लाते थे।
सर्दियों में टमाटर, मूली, गाजर का कस (सलाद) देशी टमाटर/आलू की सब्जी, लोहे की कड़ाही वाली ही भाती। हरे धनिये, गरम मसाले की खुशबू पूरे घर में महक जाती, साथ में #पूरी खाने में चार चांद लगाती।
ये सब्जियां सर्व सुलभ और हर घर का हिस्सा थीं।
दही छाछ की भरमार थी।
जिस #मिलेट की आज चर्चा करते हैं,
वही मोटा अनाज, मक्खन खुराक थी।
घर घर में दूध वाले पशुओं की दरकार थी।
कढ़ी/बेसन गट्टे, खेत वालों की शान थी।
मटर, गन्ना, बथुआ, चना, सरसों का साग, मिर्ची खेत/बाड़ी से ताजा लाते, जब जहां से मन करता था।
भले ही मनमुटाव हो, मना कोई नहीं करता था।
चावल/भात कभी कभी ही बनता था।
जिन छोटे आलुओं को, शहरों में खरीदते हैं दाम देकर,
गांव में आलू खोदने वाला मजदूर यूं ही घर ले जाता था।
और इस तरह सब्जी पर होने वाला खर्च का पता ही नहीं चलता था।
_ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान
मनु वशिष्ठ ने 1960-70 के दशक में ग्रामीण जीवन शैली का अत्यन्त रोचक यथार्थ परिभाषित किया है
मनु वाशिष्ठ जी जीवन की पुरानी यादें ताजा कर देती हैं