मिलते-जुलते ही दुनिया चलती है

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– विवेक कुमार मिश्र

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

मनुष्य समाज में रहता है और उसे सामाजिक व्यवहार को सीखने का अवसर भी समाज में ही मिलता है। बहुत सारे लोग इस तरह से भी सोचते हैं कि उन्हें किसी से क्या लेना-देना, उन्हें किसी की जरूरत ही नहीं उन्हें सबकुछ आता है या वे बहुत शार्प हैं उनका कोई कार्य रुकेगा नहीं जब लोग धीरे-धीरे चलते हैं तो वे तेज गति से चलने में ही अपना सब कुछ मान रहे होते हैं पर कोई लाख कहे कि उसे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है, उसे किसी तरह की जरूरत नहीं है पर वह कमरे का कैदी तो हो नहीं सकता उसे बाहर दुनिया में तो आना ही पड़ेगा और दुनिया के अनुसार व्यवहार भी करना पड़ेगा। दुनिया व्यवहार शास्त्र और सामाजिक रीति नीति से चलती है। यह दुनिया किसी के लिए अकेले हो जाने हेतु नहीं है न ही कोई अकेला दुनिया में घूमता हुआ मिलता है । हर कोई किसी न किसी के साथ घूमते टहलते मिल ही जाता है और इस तरह से जो लोग मिलते हैं वे जरूरी भी नहीं कि एक विभाग में हों या एक जैसा काम करते हों पर मनुष्य होने के नाते एक भूमि पर साथ साथ घूमते टहलते मिलते हैं । एक दूसरे का ख्याल रखते हैं और यदि कोई बहुत दिनों से नहीं दिखा तो उसका हाल चाल जरूर से लेते हैं कि क्या बात है दिखे नहीं । इस तरह से एक दूसरे को आश्वस्त करने वाली दुनिया मनुष्यता को विस्तारित करने का काम करती है। इसीलिए समय निकाल कर परिचित परिवारों से, मित्रों से मिलने जुलने का प्रयास जरूर करना चाहिए। चलते फिरते मिलते-जुलते ही यह दुनिया गति करती रहती है। सब एक दूसरे के साथ ही कदम बढ़ाते हैं।
मिलना जुलना आदमी का स्वभाव होता है और आदमी को समय-समय पर मिलते-जुलते रहना चाहिए। ‌मिलते जुलते रहने से मित्रता भाव को शक्ति मिलती है, आप नये सिरे से रिचार्ज हो जाते हैं। आजकल लोग मोबाइल तो रिचार्ज कराते हैं पर मित्र भाव को रिचार्ज करने से परहेज़ करते हैं, महीनों महीनों बीत जाये किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, सब एक दूसरे को सोशल मीडिया पर देख लेते हैं, एक दूसरे के स्टेटस देखकर अनुमान लगा लेते हैं कि आदमी ठीक दिख रहा है तो ठीक ही होगा, इससे ज्यादा के लिए कोई कुछ सोचता नहीं, अचानक ही पता चलता है कि फलां परेशान है या फलां की तबियत ठीक नहीं है तो फलाने को यह हो गया तो फलाने को वह हो गया और ऐसी सूचनाएं सुनकर भी किसी को आश्चर्य नहीं होता, सब बस इसी तरह से सोचते हैं कि आजकल बीमारियों का होना आम बात है। कौन नहीं बीमार है और जो बीमार नहीं है वह आगे बीमार हो जायेगा। इस तरह से एक तटस्थता का भाव आता जा रहा है कि हम क्या करें ? हमारे हाथ में है ही क्या? सब कुछ तो नियति के हाथ में है और नियति कैसे कब क्या खेला कर दें कोई नहीं जानता। पर यहीं बार बार यह महसूस होता है कि हम कुछ कर भले न सके पर किसी के साथ दो कदम चल तो सकते हैं, किसी के लिए थोड़ा समय तो निकाल सकते हैं ऐसा भी भीषण महा स्वार्थ किस काम का कि हम किसी के काम तभी आयेंगे जब वह हमारे काम आया हों। यदि हम इस तरह से सोच कर चल रहे हैं तो हमारे मनुष्य होने में भी संदेह होता है। मनुष्यता टिकी ही इस बात पर है कि हम सब अपने आप की दुनिया से बाहर निकल कर देखें, एक दूसरे को जाने कौन कहां किस स्थिति में है इसकी चिन्ता करना भी हमारा धर्म है। जब तक इस तरह से सोचते हुए हम नहीं चलते तब तक हमारे आसपास क्या हो रहा है किसे पता।‌आज हर आदमी सुविधाओं के बटन से संचालित होता है न तो वह किसी और के लिए कोई कार्य करना चाहता न ही उसके लिए कोई आगे आता। सब सिमट से गये हैं, सब अपनी अपनी दुनिया में अपनी अपनी सुविधाओं के कैदी हो गये हैं। दुनिया कहां से कहां जा रही है इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में जो दुनिया आज बन रही है वह घोर संकुचन का शिकार हो रही है उसके पास कोई नहीं है उसका कोई नहीं है यह तो समझ में आता है पर वह भी किसी का नहीं है न ही किसी के लिए एक कदम भी चलना चाहता तो ऐसी स्थिति में भला दुनिया कैसे चलेगी इसे कोई भी कैसे कह सकता है। दुनिया को सही ढ़ंग से चलाने के लिए एक दूसरे के साथ आगे आने की जरूरत है। आप इस तरह से सोच कर चलेंगे की यह काम मेरा है और यह काम मेरा नहीं है तो फिर हो गया काम-धाम, ऐसे सोचने वाले कुछ नहीं करते पर जब आप अपना कार्य करते हुए अन्य के कार्य को भी यदि कर देते हैं या अन्य के कार्य के लिए भी खड़े रहते हैं तो फिर किसी कार्य को पूरा करने में आपको किसी तरह की दिक्कत नहीं आती। हर आदमी अलग अलग माइंडसेट का बना होता है कुछ कार्य आप अच्छा कर सकते हैं तो कुछ अन्य कार्य दूसरे आप से बहुत अच्छा कर सकते हैं ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि जो आपको नहीं आता उस कार्य को भी दूसरे की मदद से अच्छे से करने की कोशिश करिए। स्वाभाविक रूप से आपका कार्य हो जायेगा। दिक्कत केवल वहां आती है जब कोई केवल अपने लिए मदद ही मांगता है और किसी के साथ एक कदम भी चलना नहीं चाहता तो फिर वह चाहे जितना महान हो उसके साथ कोई भी कनेक्ट नहीं हो पाता कोई भी उसके लिए आगे नहीं आता। यह दुनिया शुरु से एक दूसरे के साथ सहयोग और समन्वय के आधार पर ही चल रही है। अकेले कोई भी नहीं चलता। अकेले चलने का सुख तब होता है जब कोई भी न हो और सबकुछ आपके उपर ही आ गया हों तो वहां चट्टान की तरह डट कर आपको अकेले ही सबकुछ निपटाना पड़ता है पर ऐसी स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं रहती , मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज जल्द ही उसके आसपास आ ही जाता है। फिर वह समाज में घुलते मिलते जुलते चलता रहता है और एक एक कर उसके कदम आगे की ओर बढ़ जाते हैं।

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