
-पी के आहूजा-
(सामाजिक कार्यकर्ता एवं व्यवसायी)
कोटा की स्वच्छता पर दोनों नगर निगम प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये खर्च करते हैं लेकिन शहर को किसी भी क्षेत्र से देख लीजिए गंदगी के सिवा कुछ नजर नहीं आता। स्वच्छता सर्वेक्षण सर्वे रिपोर्ट इसका ताजा उदाहरण है। स्वच्छता सर्वेक्षण में कोटा दक्षिण को राजस्थान के 29 शहरों में चौथा स्थान हासिल हुआ है जबकि कोटा उत्तर तो 23वें स्थान पर रहा। देश के 382 शहरों की ऑल इंडिया रैंक में कोटा दक्षिण को 141 वीं रैंक और कोटा उत्तर को 364 वीं रैंक हासिल हुई। यह कितने अफसोस की बात है कि शहर के चौमुखी विकास के लिए कोटा को दो नगर निगम में विभाजित किया गया। स्टॉफ और पैसा दो निगम पर खर्च हो रहा है लेकिन स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है।

कोटा के दोनों नगर निगमों का करोड़ों रुपए का बजट है लेकिन विकास कार्यों के बजाय गुटबाजी और टांग खिंचाई ही नजर आती है। दशहरा मेले जैसे राष्ट्रीय आयोजन तक में यह गुटबाजी खुलकर सामने आ रही है। दोनों निगमों के मेयर के बीच ही तालमेल नहीं है फिर हम विकास की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। बारिश के दौरान कोटा के नालों की सफाई की पोल खुल गई थी। कोटा जंक्शन के रेलवे क्षेत्र की कई कालोनियां बारिश में जल मग्न रहीं। यहां के निवासियों का लाखों रुपए का नुकसान हुआ। यही हालत शहर के अलग-अलग हिस्सों का रहा। लोगों को रेस्क्यू करना पड़ा । यह स्थिति हर साल की है। प्रशासन को लोगों की समस्या के समाधान के बजाय कई दिनों तक रेस्क्यू और फिर मुआवजे देने जैसे कामों में व्यस्त रहना पड़ता है। यह पैसा लोगों की गाढ़ी कमाई से दिए टैक्स का होता है।
दावे हुए फेल
दोनों निगम के मेयरों ने इस बार गर्मियां शुरू होने के साथ ही दावे करने शुरू कर दिए थे कि शहर के नालों की सफाई की जोर-शोर से की जा रही है ताकि इस बार बारिश में लोगों को परेशानी नहीं हो। जवाहर नगर नाले में कई दिनों तक मेयर राजीव अग्रवाल की देखरेख में सफाई अभियान चला फिर भी जवाहर नगर का मुख्य क्षेत्र कई दिनों तक बारिश के पानी से भरा रहा। स्पष्ट है मेयर की देख रेख के बावजूद खामी रही। या केवल औपचारिकता ही रही।
उल्लेखनीय है कि निगम के बजट का बहुत बड़ा हिस्सा कचरा प्रबंधन पर खर्च किया जाता है लेकिन आप शहर में एक भी स्थान ऐसा नहीं ढूंढ सकते जिसे साफ कहा जा सके। यहाँ तक की जहां पर्यटक आते हैं वह भी साफ़ नहीं कहे जा सकते।
सड़कों पर आवारा मवेशियों की समस्या जस की तस
देवनारायण योजना के बावजूद सड़कों पर आवारा मवेशियों की समस्या जस की तस है। आवारा श्वान लोगों को नियमित निशाना बना रहे हैं। यहां तक कि जिस नगर निगम पर इन श्वान की जिम्मेदारी है उसके पार्षद ही श्वान के हमले में घायल हो रहे हैं। दादाबाडी, जवाहर नगर, तलवंडी जैसे पॉश इलाके श्वान और आवारा मवेशियों के गढ़ बने हुए हैं। ये मवेशी न केवल लोगों को शारीरिक नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि गंदगी में भी इनकी प्रमुख भूमिका है। मवेशियों के सड़कों पर जगह-जगह गोबर, पेशाब और विष्टा से गंदगी पसरी रहती है। इनकी वजह से घर-घर कचरा अभियान का भी कोई असर नहीं है। सड़कों की साफ सफाई के बारे में तो सोचना भी फिजूल है। जब शहर की अधिकांश सड़कें साल भर ही उधड़ी पड़ी रहें तो इनकी सफाई कैसे हो सकती है।
निवासी भी बराबर के जिम्मेदार
कोटा के स्वच्छता रैंकिंग में पिछड़ने के लिए केवल नगर निगम और प्रशासन ही जिम्मेदार नहीं है। यहां के निवासी भी इसके लिए बराबर के जिम्मेदार हैं। घर में जगह होने के बावजूद वाहन सड़क पर पार्क करने में अपनी शान समझते हैं। गुटखा खाकर जगह-जगह थूकना, कचरा लापरवाही से इधर उधर फेंकना मानो जन्म सिद्ध अधिकार बन गया है। जरूरत पड़ने पर घर के बाहर और पार्कों में बड़ी जतन से लगाए पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने से नहीं हिचकते। यदि यही हालत रहे तो कोचिंग सिटी के तौर पर कितना ही नाम कमा लें यहाँ आने वालों की नजरों में तो जाहिल ही कहे जायेंगे।
कोटा नगर निगम का बंटवारा राजनैतिक अधिक स्वच्छता,सुशासन गौड़ रहा है। कोटा नगर की आबादी 8/10 लाख के बीच है। इतने छोटे शहर को प्रशासनिक स्तर पर कोटा उत्तर और कोटा दक्षिण में विभाजित कर दिया गया है लेकिन प्रशासन एवं जन प्रतिनिधियों की सोच में कोटा शहर को सुंदर आदर्श शहर बनानें में परिवर्तन नहीं आया है। निगम के जन प्रतिनिधि, अधिकारी इंदौर कर दौरा करके सफाई, ड्रेनेज सिस्टम आदि की जानकारी,लेते रहे हैं, लेकिन संभवतः यह दौरे आमोद प्रमोद अधिक ,व्यवस्था सुधारने के लिए कम हुए हैं अन्यथा देश के स्वच्छता शहर इन्दौर का अवलोकन करने के बाद व्यवस्था चाकचौबंद होना चाहिए था।
कोई भी सरकार नाले के उपर से आज तक अतिक्रमण तो हटा नहीं सकी नाले कहाँ से साफ हो पायेंगे!