अनुरा दिसानायके : भारत के लिये मायने

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-देशबन्धु में संपादकीय 

ऐसे वक़्त में जब दुनिया भर में दक्षिणपंथी शासकों का वर्चस्व बढ़ चला है, भारत के पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में मार्क्सवादी विचारधारा के अनुरा कुमार दिसानायके का रविवार को राष्ट्रपति निर्वाचित होना वामपंथ के लिये एक नयी बयार की तरह देखा जा रहा है। पूंजीवादी शासन प्रणाली का लम्बा दौर देख चुके इस छोटे से देश ने 55 वर्षीय दिसानायके पर सिर्फ़ इसलिये भरोसा नहीं जताया है क्योंकि वे एक मज़दूर के बेटे हैं, बल्कि उन्हें भ्रष्टाचार से लड़ने तथा आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने वाले राष्ट्राध्यक्ष के रूप में भी देखा गया है। देश के इतिहास में पहली बार दो दौर की मतगणना के बाद इस पद के लिये हुए चुनाव पर दिसानायके को जीत इसलिये हासिल हुई क्योंकि शीर्ष पर रहे दो उम्मीदवार आवश्यक 50 प्रतिशत वोट प्राप्त नहीं कर सके। उत्तर-मध्य श्रीलंका के एक गांव थम्बुटेगामा के अनुरा दिसानायके जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के नेता हैं जिसने नेशनल पीपल्स पावर के साथ गठबन्धन किया हुआ था। 2019 के चुनाव में महज 3 प्रतिशत वोट पाने वाले दिसानायके ने अबकी 42.31 फीसदी मत प्राप्त कर अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी सजीथ प्रेमदासा (32.76 प्रश) को काफी पीछे छोड़ दिया। सोमवार को उन्होंने शपथ ग्रहण कर ली।

इन दिनों अमेरिका की यात्रा कर रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिसानायके को बधाई देते हुए कहा है किः ‘भारत की नेबरहुड फ़र्स्ट की वैदेशिक नीति और दृष्टिकोण से श्रीलंका का ख़ास स्थान है।’ प्रतिसाद में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने भी परस्पर सहयोग के लिये अपनी प्रतिबद्धता जतलाई है। श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त संतोष झा ने दिसानायके से मुलाकात कर भारत की ओर से उन्हें बधाई दे दी है। कहने को मोदी और श्रीलंकाई राष्ट्रपति ने एक दूसरे के प्रति सम्मान दर्शाने वाले बयान दिये हैं। ऐसे मौकों पर औपरिकतावश ऐसे सद्भावनापूर्ण संदेशों का आदान-प्रदान होता ही है, लेकिन देखना यह होगा कि नये राष्ट्रपति का भारत के प्रति और भारत का उनके प्रति नज़रिया और व्यवहार क्या रहेगा। पड़ोसी मुल्कों के साथ भारत के वैसे मधुर सम्बन्ध नहीं रह गये हैं जो 2014 के पहले हुआ करते थे, यानी कि मोदीजी के प्रधानमंत्री बनने के पहले थे। ज्यादातर पड़ोसियों के साथ किसी न किसी मुद्दे को लेकर भारत के सम्बन्ध सहज न रह पाने का एक बड़ा कारण इन सभी देशों पर चीन का बढ़ता प्रभाव रहा है। श्रीलंका पर भी चीन की निगाहें रही हैं।

गोटाबाया प्रेमदासा के वक्त चीन ने श्रीलंका के एक द्वीप हंबनटोटा को अपना सैनिक अड्डा बनाने की कोशिश की थी ताकि वह भारत और सम्पूर्ण हिन्द सागर के क्षेत्र पर दक्षिणी हिस्से से निगाह रख सके। अन्य दूसरे कारणों से (भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था आदि) प्रेमदासा के खिलाफ जनाक्रोश फैला व उन्हें पद छोड़ना पड़ा था। इसके बाद चीन का इस इलाके में प्रवेश रुक गया था। अब आगे देखना होगा कि इसे लेकर श्रीलंका की नयी सरकार क्या रुख अपनाती है। वैचारिक रूप से दिसानायके के चीन के करीब होने से इसकी आशंका तो बनी है कि वे भारत के मुकाबले चीन को ज्यादा तरज़ीह दें। ऐसे में भारत के लिये मुश्किलें बढ़ सकती हैं। हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि वर्तमान दौर में मध्यमार्गी होना वाम पार्टियों की भी मजबूरी है और श्रीलंका में कोई भी सरकार आये, उसे भारत को नज़रंदाज़ करना मुश्किल होगा। वैसे प्रेमदासा सरकार की नीतियों तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ जो नेता सर्वाधिक मुखर थे, उनमें दिसानायके अग्रणी थे।

उधर चीन ने इस नतीजे पर खुशी जताई है। चीन के ग्लोबल टाइम्स ने कहा है कि ‘दिसानायके के आने से श्रीलंका की भारत पर निर्भरता कम होगी।’ वैसे पिछले दिनों जब दिसानायके भारत के दौरे पर आये थे तब उन्होंने विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ मुलाकात की थी। उन्होंने भारत के साथ श्रीलंका के अच्छे सम्बन्धों का हवाला न देकर इसकी ज़रूरत बतलाई थी। वैचारिक रूप से दिसानायके को भारत-विरोधी समझा जाता है। यही भारत के लिये चुनौती है। हालांकि श्रीलंकाई मामलों के विश्लेषक मानते हैं कि वैचारिक रूप से चीन के नज़दीक होने के बावजूद हाल के वर्षों में दिसानायके के विचारों में संतुलन आया है। वैसे भी विपक्ष में रहते हुए जिस तरह के विचार कोई भी नेता या पार्टी व्यक्त करती है, अक्सर सत्ता सम्हालने के बाद उनमें परिवर्तन दिखता है। इसका कारण होता है शासन करने के लिये लचीलेपन की जो आवश्यकता होती है, वह सभी को अपनानी पड़ती है।

यह भी माना जा रहा है कि श्रीलंका की आर्थिक बदहाली के दौरान भारत ने उसे जो मदद की थी, उसका ख्याल दिसानायके रखेंगे। इस लिहाज से देखें तो वहां की नयी सरकार भारत को बाहर रखकर अपनी नीति नहीं बना सकती। इतना ही नहीं, श्रीलंका के लिये ज़रूरी है कि वह भारत तथा चीन से एक समान व्यवहार करे। दोनों के न तो वह बहुत नज़दीक जा सकता और न ही दूर रह सकता है।
श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति भी कुछ इस तरह है कि क्षेत्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र उसे भारत के साथ रहना अधिक श्रेयस्कर होगा। इसके अलावा आंतरिक राजनीति के हिसाब से भी दिसानायके सम्भवतः चीन के बहुत निकट नहीं जाना चाहेंगे। इसके प्रमुखतया दो कारण हैं- पहला तो यह है कि चीन की विस्तारवादी नीति से सारा विश्व अवगत है। दूसरे, चीन के संग निकटता के कारण प्रेमदासा का क्या हश्र हुआ है, यह भी उनके सामने है। इसलिये चीन से वैचारिक निकटता के बावजूद नये राष्ट्रपति संतुलन साधना पसंद करेंगे, ऐसी उम्मीद की जाना चाहिए।

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