नीतीश के लिए विपक्षी एकता की राह आसान नहीं

-विष्णुदेव मंडल-

विष्णु देव मंडल

लोकसभा चुनाव में लगभग सालभर का वक्त बचा है। ऐसे विपक्षी दल येन केन प्रकारेण नरेंद्र मोदी को सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं। सभी विपक्षी नेताओं का आरोप है की मौजूदा केंद्र सरकार विपक्षी दलों के नेताओं को ईडी, सीबीआई और सेंट्रल एजेंसियों के माध्यम से प्रताड़ित कर रही है। विपक्षी नेताओं की माने तो विपक्ष को एकजुट करने के लिए संयोजक की जिम्मेदारी नीतिश कुमार को सौंप दी है। वह उन सभी विपक्षी दलों को एक मंच पर लाएंगे जो भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखे हैं ।
मसलन ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल ऐसे नेता हैं। खबर यह भी है की नीतीश कुमार समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव से जल्द ही मिलने वाले हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सबसे बड़ा विपक्षी दल है। संसदीय क्षेत्र के हिसाब से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश को फतह किये बिना देश की सत्ता पर काबिज होना आसान नहीं है। अब सवाल उठता है कि क्या नीतीश कुमार अखिलेश यादव, मायावती और कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सीटों पर एकजुट होकर चुनाव लडने के लिए मना पाएंगे?
अव्वल तो उत्तर प्रदेश में विपक्षी दलों मतलब कांग्रेस, सपा, बसपा एकजुट नहीं हो सकती और वह भी नीतीश कुमार के कहने पर तीनों दलों का मिलान इसलिए भी संभव नहीं है की कोई दल वहां कांग्रेस को स्पेस देना पसंद नहीं चाहेगा। इन सभी की अपनी महत्वाकांक्षा है। सबसे बड़ी बात कि आखिर कोई पार्टी नीतीश कुमार की मध्यक्षता क्यों स्वीकारेगी। क्योंकि नीतीश कभी भी किसी का साथ छोड़ सकते हैं और साथ आ भी सकते हैं। राजनीति के जानकारों का कहना है की नीतीश कुमार की पहल से विपक्ष एकजुट नहीं हो सकता क्योंकि नीतीश कुमार की पार्टी बिहार में तीसरे नंबर पर है। उनकी देश के सबसे कमजोर मुख्यमंत्रियों में गिनती की जाती है। वह एक बार भी अपने बूते बिहार में सरकार नहीं बना सके। ऐसे में नीतीश कुमार के विपक्षी एकता के संयोजक बनने से कोई खास लाभ नहीं मिलने वाला।
राजनीतिक पंडितों की माने तो नीतीश कुमार तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव को भी अपने पाले में नहीं कर पाएंगे क्योंकि के सीआर किसी भी कीमत पर कांग्रेस के साथ जाने वाले नहीं हैं। वैसे भी तेलंगना में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने से उन्हें कोई खास लाभ मिलने की संभावना दूर-दूर तक नहीं है। हालांकि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उनके साथ जाने की हामी भर दी है लेकिन दिल्ली में कांग्रेस के साथ जाने से शायद परहेज करें क्योंकि दिल्ली में कांग्रेस की खिलाफत से ही आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था।
सबसे टेढ़ी खीर है ममता बनर्जी को विपक्षी धडे में लाना। ममता बनर्जी अकेली नेता हैं जो बंगाल मे नरेंद्र मोदी को चुनौती दे रही हैं। उन्हें चुनाव जीतने के लिए संभवत:कांग्रेस और सीपीएम से गठबंधन की भी जरूरत नहीं है।
सवाल उठता है जिन जिन राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रप सत्ता में है वहां कांग्रेस पार्टी की हालत ठीक नहीं है और जहाँ कांग्रेस सता या विपक्ष में है वहां अन्य क्षेत्रीय दलों का कोई वजूद नहीं है। ऐसे में आगामी लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार द्वारा बनाए जाने वाली विपक्ष की एकजुटता आसान नहीं है।
राज्यों के सरकार की चुनाव और देश के आम चुनाव में भारी अंतर होता है। पिछले 9 सालों से देश में मजबूत और स्टेबल गवर्नमेंट है इससे पहले एक दशक तक यूपीए गठबंधन की सरकार थी। गठबंधन सरकार की मजबूरी थी कि वह बड़े और कड़े फैसले नहीं ले पाते थे। जहां देश के दर्जनों राज्यों में कांग्रेस का जनाधार बिल्कुल नहीं है वहीं क्षेत्रीय दल अपने राज्य में ही सिमट कर रह गए हैं इस हालत में नीतीश कुमार की अगुवाई में विपक्षी दलों की एकजुटता दूर-दूर तक संभव नजर नहीं आती है।

(लेखक बिहार मूल के स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं)

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