
-सुनील कुमार Sunil Kumar
हिन्दुस्तान के लोग बिल्कुल अलग अलग इलाकों से निकली दो खबरें एक बात एक सरीखी बता रही हैं। छत्तीसगढ़ के नक्सल-हिंसाग्रस्त बस्तर की रिपोर्ट है कि वहां पर दंतेवाड़ा जिले के 50 गांवों में सचिन तेंदुलकर फाउंडेशन खेल मैदान बना रहा है, और इसमें हजारों लडक़े-लड़कियां कई खेलों में शामिल होंगे। लोगों को मालूम ही है कि ओलंपिक जैसे बहुत से खेल आयोजनों में दुनिया के आदिवासी देशों, अफ्रीका वगैरह के खिलाड़ी सैकड़ों मैडल ले जाते हैं। जंगल की जिंदगी उन्हें एक अलग किस्म का दमखम देती है जो कि शहरी जिंदगी से हासिल नहीं हो पाता, और दौडऩे, कूदने जैसे बहुत से मुकाबलों में तो अफ्रीकी देशों के खिलाड़ी ही सबसे आगे रहते हैं। इसलिए आदिवासी बस्तर की क्षमता को अगर किसी फाउंडेशन की तरफ से बढ़ावा मिलता है, तो उससे कई नए खिलाड़ी सामने आ सकते हैं। लेकिन खेलों से परे भी ऐसे इलाके में ऐसी हलचल की जरूरत इसलिए है क्योंकि इसने दशकों से नक्सल-हिंसा देखी है, सुरक्षाबलों की असाधारण बड़ी मौजूदगी भी देखी है, और बचपन संगीनों के साये में ही गुजरा है। हिंसा के बीच सामान्य बचपन रह नहीं पाया, और अब अगर वहां की क्षमता को खेलों की तरफ मोड़ा जा सकता है, तो ये जख्मों पर मरहम की तरह भी काम कर सकता है। पश्चिम के जो संपन्न और विकसित देश मनोचिकित्सकों, और परामर्श देने वालों से भरे हुए हैं, वहां पर किसी त्रासदी से गुजरे हुए फौजी या आम नागरिकों के दिल-दिमाग के जख्मों का इलाज एक बड़ा मुद्दा रहता है, और सरकारें अपने नागरिकों को स्वस्थ बनाए रखने के लिए इस पर खर्च भी करती हैं। बस्तर ने चौथाई सदी से अधिक से जो हिंसा देखी है, उसके मानसिक जख्मों का इलाज भी जरूरी है, और खेल गतिविधियां उनमें से एक तरीका हो सकता है।
अब हम आज की उस दूसरी खबर पर आते हैं जिसकी वजह से इस विषय पर लिखना तय किया। कश्मीर में नौजवानों के बीच फुटबॉल को सोच समझकर दस से अधिक बरस पहले कुछ लोगों ने बढ़ावा दिया, और इसकी शुरूआत उन्होंने नौजवानों के बीच सौ फुटबॉल बांटकर की। 2014 में कश्मीर भयानक बाढ़ से तबाह हो गया था, और एक हिन्दू, और एक मुस्लिम कारोबारियों ने मिलकर नौजवानों को त्रासदी और हिंसा से उबारने के लिए उनके बीच फुटबॉल को लोकप्रिय बनाया। इसके बाद 2016 तक नौजवान फुटबॉल इतना खेलने लगे थे कि इन लोगों ने वहां ‘रियल कश्मीर एफसी’ नाम का फुटबॉल क्लब बनाया जो कि लगातार कश्मीरियों के बीच लोकप्रिय होते चल रहा है। इस सरहदी राज्य का पूरा इतिहास ही तनाव से भरा हुआ रहा, और नौजवान पथराव और प्रदर्शन में जुटे हुए दिखते थे। अब फुटबॉल की वजह से गांव-कस्बों तक यह खेल मशहूर होने लगा, और नई पीढ़ी के लिए यह दमखम का एक सामान बन गया। दो बरस बाद 2018 तक यह क्लब आईलीग में पहुंच गया, और उसके अगले बरस डूरंड क्लब के सेमीफाइनल में यह पहुंचा, जो कि दुनिया की एक सबसे पुरानी फुटबॉल प्रतियोगिता है। जर्मन समाचार एजेंसी डीडब्ल्यू की एक रिपोर्ट बताती है कि किस तरह कश्मीर में आज लोग किसी भी हिंसा या राजनीतिक अस्थिरता से परे, बगल के पाकिस्तान से किसी तनाव से परे, इस खेल में डूब जाते हैं, जब वे इसे देखते हैं, या खेलते हैं।
दुनिया में जगह-जगह खेलों को मानसिक तनावों का एक इलाज माना जाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि कई किस्म की कला को भी मानसिक स्वास्थ्य बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। हमने बस्तर के बारे में यह बात बरसों पहले से लिखना जारी रखा था कि बड़ी नक्सल हिंसा के शिकार इलाकों में पूरी की पूरी नौजवान पीढ़ी के मानसिक स्वास्थ्य के लिए कुछ किया जाना चाहिए। हमने सामुदायिक परामर्श भी सुझाया था, और अब वहां खेलकूद के रास्ते लोगों को सोच सकारात्मक करने की जो कोशिश सुनाई पड़ रही है, वह, या ऐसी और दूसरी कोशिशें जरूरी थीं। जहां पर हिंसा की वजह से जीवन सामान्य नहीं रह जाता, जहां पर हिंसा के मानसिक जख्म गहरे रहते हैं, उसकी वजह से नौजवान पीढ़ी के आगे बढऩे की संभावनाएं बहुत सीमित हो जाती हैं, वहां पर जीवन के प्रति नजरिए को सकारात्मक बनाने के लिए कई तरह की कोशिशों की जरूरत रहती है।
अब पल भर के लिए भारत को छोडक़र बाहर निकलें, तो फिलीस्तीन को देखकर दिल बैठ जाता है। पौन सदी से अधिक हो चुका है कि यह देश लगातार अवैध कब्जे, हमले और हिंसा का शिकार है। यहां के कुछ लोगों ने जवाबी हिंसा भी सीख ली है, हालांकि वह इजराइली हिंसा के पासंग भी नहीं बैठती। अब ऐसी पूरी नस्ल का तन-मन, उसका घर-शहर सब कुछ मलबा हो चुका है, और हम कल्पना भी नहीं कर पाते कि किस तरह का सामुदायिक-मानसिक इलाज इस नस्ल के जख्मों पर मरहम हो सकता है। लेकिन आज फिलीस्तीन का गाजा दुनिया में मानसिक स्वास्थ्य की सबसे बड़ी जरूरत वाली जगह बना हुआ है, और दुनिया की सारी ताकत भी इन लोगों के जख्म भरने में कम पड़ेगी। कुछ इसी तरह का हाल यूक्रेन का है, और शायद रूस के भी कुछ हिस्से का। कुछ ऐसा ही हाल म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय का है, और ऐसा ही हाल मणिपुर में वहां के कमोबेश कई समुदायों का है। सामुदायिक तनाव की नौबत भारत के भीतर कई उन हिस्सों में भी है जहां पर साम्प्रदायिक हिंसा हुई है, दंगे हुए हैं, और बुलडोजरों से लोकतंत्र का भरोसा गिराया गया है। ऐसा लगता है कि देश और दुनिया में सामुदायिक स्वास्थ्य के लिए पेशेवर परामर्शदाताओं से बहुत अधिक ऐसी सामुदायिक गतिविधियों की जरूरत है जो कि किसी इलाके, किसी धर्म या जाति के लोगों, किसी नस्ल के लोगों को जख्मों से उबार सके। एक तरफ छत्तीसगढ़ के बस्तर के दंतेवाड़ा की खबर, और दूसरी तरफ कश्मीर की, इन दोनों से ही बाकी देश और दुनिया को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। अब सवाल यह उठता है कि दुनिया का सबसे बड़ा मलबा, और सबसे बड़ी कब्रगाह बना हुआ गाजा खेल के मैदान जितनी जगह लाएगा भी तो कहां से लाएगा, और मैदान पर दौडऩे के लिए दोनों पांव भी तो हर किसी के पास रह नहीं गए हैं। फिर भी कुछ न करने से बेहतर ऐसी जगहों के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि बस्तर के बच्चों ने नक्सली विस्फोटों में बदन के चिथड़े होते देखे हैं, दोनों तरफ की बंदूकों से मौतें देखी हैं, कमउम्र में ही मजबूरी में हर परिवार से एक-एक लडक़े को नक्सल संगठन में जबरिया भर्ती किए जाते देखा है, और ऐसी त्रासदी से उन्हें उबारना ठीक उसी तरह जरूरी है जिस तरह अफगानिस्तान, इराक और वियतनाम से लौटे हुए सैनिकों के त्रासदी-पश्चात मानसिक तनाव का इलाज अमरीकी सरीखे देश में एक बड़ा मुद्दा रहता है।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल् से साभार)