
-लक्ष्मण सिंह-

डोली उठी जो उसकी ये दिल ग़म-फ़िशाँ हुआ
रुख़्सत जिगर से इश्क का तब कारवाँ हुआ
रिश्ता नया जो उस का बना जा रहा है अब
अहसास खत्म कर दूँ जिगर बे-निशाँ हुआ
मानूस जब तलक मैं रहा काम का मगर
उसके जिगर से अब तो मैं बे-आशियाँ हुआ
खम-दार जुल्फ़ से वो ढकी शक्ल उसकी थी
बस इस अदा पे दिल मेरा भी कद्र-दाँ हुआ
अब ‘लखन’ क्या गिला यूँ तबाही की हम करें
खामोश लफ़्ज और ये जिगर बे-जुबाँ हुआ
मानूस = परिचित
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