जेएनयू में किसने लिखे ब्राह्मण- बनिया विरोधी नारे ?

जी पार्थसाऱथी ने जेएनयू के पहले वाइस चासंलर के रूप में इसे एक लोकतांत्रिक शिक्षण संस्थान के रूप में स्थापित किया था। भारत सरकार डिप्लोमेट तथा शिक्षाविद्द पार्थसारथी जी की क्षमताओं से वाकिफ थी। इसलिए उन्हें 1969 में जेएनयू के वाइस चांसलर पद की पेशकश हुई। उन्होंने जेएनएयू को ज्वाइन करते ही प्रो. कृष्णा भारद्वाज, प्रो. ईशवरी प्रसाद, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. तान चुंग, डॉ. सतीश जैन पर जैसे नामवर शिक्षाविद्दों को इससे जोड़ा। अध्यापकों को खुली छूट दी कि वे अपने तरीके से पढ़ाएं और पाठ्यक्रम को सही ढंग से तैयार कर लें।

-आर.के. सिन्हा-

आर के सिन्हा

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के पहले वाइस चांसलर गोपालस्वामी पार्थसारथी (जीपी) तथा इसके मुख्य आर्किटेक्ट सी.पी. कुकरेजा की आत्मा रह-रह कर परेशान होती होगीक्योंकिउन्होंने जिस जेएनयू को खून-पसीना एक करके खड़ा किया वहां से प्राय: कोई बेहतर खबर सुनने को मिलती ही नहीं।  झगड़ाधरनाविवादआपत्तिजनक पोस्टरबाजीदेश विरोधी गतिविधियों आदि के चलते जेएनयू की प्रतिष्ठा धूल में मिल रही है। अब ताजा मामले को ही लें। जेएनयू  की दीवारों पर शर्मनाक नारे लिखे गए। वहां की दीवारों पर दो जातियों क्रमश: ब्राह्मणों  तथा बनियों को भारत और जेएनयू छोड़ने के लिये नारे लिखे गये थे। जेएनयू हो या कोई और जगह या समूचा देशसभी को सब जगह रहनेजीने और काम करने का लोकतांत्रिक अधिकार है। यह अधिकार संविधान ने हर भारतीय को दिया है। इसलिए ऐसे विद्वेषपूर्ण नारों को सिरे से खारिज किया जाना चाहिए और ऐसे नारेबाजों पर सख्त कारवाई करनी चाहिये ।

जी पार्थसाऱथी ने जेएनयू के पहले वाइस चासंलर के रूप में इसे एक लोकतांत्रिक शिक्षण संस्थान के रूप में स्थापित किया था। भारत सरकार डिप्लोमेट तथा शिक्षाविद्द पार्थसारथी जी की क्षमताओं से वाकिफ थी। इसलिए उन्हें 1969 में जेएनयू के वाइस चांसलर पद की पेशकश हुई। उन्होंने जेएनएयू को ज्वाइन करते ही प्रो. कृष्णा भारद्वाजप्रो. ईशवरी प्रसादडॉ. नामवर सिंहडॉ. तान चुंगडॉ. सतीश जैन पर जैसे नामवर शिक्षाविद्दों को इससे जोड़ा। अध्यापकों को खुली छूट दी कि वे अपने तरीके से पढ़ाएं और पाठ्यक्रम को सही ढंग से तैयार कर लें। अब भी जेएनयू बिरादरी उन्हें आदर के भाव से याद करती है। उनके नाम पर पार्थसारथी रॉक्स भी है। दरअसल पहाड़ी चट्टानों और उनपर उगे पेड़-पौधों के बीच ही जेएनयू कैंपस बसा है। कैंपस में कई ऐसे स्थान हैंजो पूरी तरह चट्टानों और घने पेड़ों से घिरे हैं। वहां के रमणीक वातावरण में छात्र-छात्रायें अपना समय प्रकृति की गोद में अपने-अपने तरीके से बिताते हैं। इनमें पार्थसारथी रॉक्स भी है। पर यह भी कहना होगा कि जेएनयू में आगे चलकर माहौल जहरीला होने लगा। वहां पर ही “टुकड़े- टुकड़े गैंग” भी उभरा।  तो बात बहुत साफ है कि जेएनयू की स्थापना जिन  सपनों को  साकार करन के इरादे से की गई थी उस रास्ते से जेएनयू भटकता जा रहा है।

पर यह भी सच है कि जेएनएनयू से ही नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. अभिजीत बनर्जी और सुनील गुप्ता जैसे चोटी के अर्थशास्त्री भी पढ़े हैं। डॉ. बनर्जी के बारे में सब जानते हैं। सुनील के संबंध में कम ही जानकारी होगी नई पीढ़ी को। वे जेएनयू में 1978 से 1984 तक रहे। सुनील गुप्ता को जेएनयू में सुनील भाई भी कहा जाता था। वे ज्ञान के भंडार थे। वे मध्य प्रदेश से थे। उन्होंने एम.ए की परीक्षा में पुराने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। हालांकि वे हिन्दी मीडियम के छात्र थे पर उन्होंने जेएनयू में अपनी एक खास जगह बना ली थी। वे प्रोफेसर कृष्णा भारद्वाज और डॉक्टर सतीश जैन जैसे गुरु जनों के सबसे प्रिय छात्रों मेँ थे। सुनील भाई ने एम.ए के बाद पीएचडी में दाखिला ले लिया। वे आदिवासियों से जुड़े सवालों पर शोध कर रहे थे। वे 1980 के दशक के शुरुआत में जेएनयू और दिल्ली यूनिवर्सिटी में छात्रों और अध्यापकों के बीच समान रूप से सम्मान पाने लगे थे। वे 1984 में मध्य प्रदेश के आदिवासियों के बीच में काम करने के लिए चले गए थे। वे गाँधीवादी थे। दुर्भाग्यवशउनकी 2014 में अकाल मृत्यु हो गई थी। जेएनयू को कुछ सिरफिरे छात्रों ने खराब किया है। वर्ना यहां से ही देश के मौजूदा विदेश मंत्री एस. जयशंकर तथा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी पढ़े हैं। यहां के ही छात्र रहे हैं प्रो. अनिरुद्ध देशपांडे भारत के आधुनिक तथा यूरोपियन इतिहास के चोटी के विद्वान माने जाते हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे प्रो. देशपांडे ने 1946 के नौसैनिक विद्रोह पर गहन अध्ययन किया है और उनकी इस विषय पर लिखी किताब – ‘एतिहासिक नौसैनिक विद्रोह’ उन सबके लिए पढ़ना जरूरी है जो उस विद्रोह को जानना चाहते हैं। उन्हें समर नीति का भी विशेषज्ञ विद्वान माना जाता है।

 दरअसल जेएनयू में हालात खराब होने के पीछे एक वजह यह भी समझ आ रही है कि वहां के कुछ अध्यापक ही अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की वजह से अपने शिष्यों को गलत रास्ते पर लेकर जाने लगे हैं। अब डॉ.अविजित पाठक जैसे विद्वान और समझदार शिक्षक घटते जा रहे हैं।  उन्होंने तीन दशकों से भी अधिक समय तक जेएनयू के समाजशास्त्र विभाग में पढ़ाया। उनके रिटायर होने के साथ ही कह सकते हैं कि जेएनयू से एक गुरुओं के गुरु कि विदाई हो गई। जेएनयू के समाज शास्त्र विभाग में 1990 और 2000 के दशकों में डॉ. टी.के.ओमनडॉ अविजित पाठक और डॉ योगेन्द्र सिंह जैसे विद्वान अध्यापक थे। मेरे छोटे भाई ने डॉ. ओमन के साथ ही पी.एच.डी. किया था। ओमन साहब मेरे यहाँ अक्सर आया करते थे और मेरी उनसे घंटों बात होती थी। इन सबके लेक्चर विद्यार्थी किसी भी सूरत में मिस नहीं करते थे। डॉ पाठक का अपने विषय पर अधिकार अतुलनीय था। वे अपनी क्लास में पूरी तरह से तैयार होकर आते थे। वे उन अध्यापकों में से नहीं थे जो अपने को अपडेट नहीं करते थे। डॉ अविजित पाठक जेएनयू के गंगा ढाबे में या सेंट्रल लायब्रेरी के बाहर अपने स्टुडेंट्स के साथ बातचीत करते हुए प्राय: मिल जाया करते थे। बहरहाल जेएनयू को फिर से पटरी पर लाना होगा। इसे राष्ट्रवादी तथा उदार शिक्षण संस्थान बनाना होगा।

(लेखक वरिष्ठ संपादकस्तभकार और पूर्व सांसद हैं)

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