जोशीमठ को बचाने के लिए देश खड़ा हो

इंसान ने अपनी बुद्धि के घमंड में इस व्यवस्था को चुनौती देनी शुरु कर दी। जिन जगहों पर पहाड़ों को होना था, जहां जंगलों का विस्तार होना था, जहां नदियों को बहने के लिए निर्बाध जगह चाहिए, जहां बारिश के पानी को समाने के लिए स्थान चाहिए, उन सारी जगहों पर इंसान ने अपना कब्जा जमाना शुरु कर दिया। लेकिन, जब उसके कब्जे को प्रकृति का नुकसान पहुंचा, तो उसे प्राकृतिक आपदा का नाम दे दिया गया।

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फोटो सोशल मीडिया

-आर.के. सिन्हा-

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आर के सिन्हा

देवभूमि के जोशीमठ में तेजी से जमीन धंसने की खबरों को देख-सुनकर सारे देश का चिंतित होना स्वाभाविक है। जोशीमठ में अफरा-तफरी का माहौल है।  दरारों से भरी हुई सड़कें और मकान भय और आतंक दोनों उत्पन्न करते हैं। इस समय सारा देश जोशीमठ और उत्तराखंड की जनता के साथ खड़ा दिख रहा है। जोशीमठ शहर पर ज़मीन में समाने का ख़तरा लगातार बढ़ता ही चला जा रहा है। इस पूरे क्षेत्र को ‘सिंकिंग ज़ोन’ करार दिया गया है। तेज़ी से बदलते हालात की वजह से आपदा प्रभावित इलाकों में रहने वाले हज़ारों परिवारों को पुनर्वास केंद्रों में ले जाया जा रहा है। अब जोशीमठ में ताजा स्थिति के लिए पर्यटन, अवैध निर्माण और सुरंगों और बांधों का निर्माण बताया जा रहा है। कहने वाले तो यह भी कह रहे हैं कि अनियंत्रित भवन निर्माण को देख भूकम्प भी जोशीमठ को घूर रहा है। इसलिए जोशीमठ का अस्तित्व खत्म होता नजर आ रहा है। वहां पर जमीन के अंदर भारी भरकम सुरंग तो खोद दिए गए, लेकिन राज्य के पर्यावरण की अनदेखी की गई। जोशीमठ मे भयावह स्थिति के चलते स्थानीय जनता की आंखों में सिर्फ आंसू के अलावा कुछ नहीं है। जीवन भर की कमाई से मकान बनाने वालों को अपनी आंखों के सामने उनको जमींदोज होता देखना पड़ रहा है।

सिफारिशों को अनदेखा किया गया

जोशीमठ ग्लेशियर के मलवे पर बसा शहर है, जिसकी जमीन बहुत मजबूत नहीं है। इस बात का उल्लेख 50 साल पहले की एक रिपोर्ट में किया भी गया था। इस रिपोर्ट में अनियोजित विकास के खतरों को रेखांकित करते हुए चेतावनी दी गई थी कि जोशीमठ में छेड़खानी के परिणाम भारी पड़ सकते हैं । रिपोर्ट में जड़ से जुड़ी चट्टानों, पत्थरों को बिल्कुल भी न छेड़ने के लिए कहा गया था। वहीं यहां हो रहे निर्माण को भी सीमित दायरे में समेटने की सलाह की गई थी। पर इन सिफारिशों को अनदेखा किया गया। इसके बाद और भी अध्ययनों में भी ऐसी ही बातें सामने आईं कि इस पहाड़ी इलाके में विकास के नाम पर चल रही बड़ी परियोजनाएं आखिरकार तबाही का कारण बन सकती हैं।

भागीरथी प्रयास करने होंगे

उत्तराखंड को देवभूमि कहते हुए यहां धार्मिक गतिविधियों को बढ़ाने की योजनाएं बनाई गईं। धार्मिक और प्राकृतिक पर्यटन बढ़ाकर आर्थिक समृद्धि के सपने भी दिखाए गए। लेकिन, यह सब किस कीमत पर हासिल होगा,  लगता है इस पर विचार नहीं किया गया। जोशीमठ एक प्राचीन शहर है। यहां 8वीं सदी में धर्मसुधारक आदि शंकराचार्य का प्रवास हुआ। फिलहाल चर्चा है कि वर्तमान संकट के लिए एनटीपीसी द्वारा बनाए जा रहे बिजली घर के अंडरग्राउंड टनल के निर्माण लिए विस्फोटकों का प्रयोग, जल विद्युत परियोजना के लिए अंधाधुंध खुदाई तथा नेशनल हाईवे बनाने के लिए अनियमित ढंग से जंगलों की कटाई है। देखिए, जो चौड़ी दरारें बद्रीनाथ में पड़ चुकी हैं जिनकी वजह से सड़कें और इमारतें धंसते जा रहे हैं। विशेषज्ञों की सलाह है कि अब बद्रीनाथ को बचाने के लिए भी भागीरथी प्रयास करने होंगे।

जिम्मेदारी तय होनी चाहिए

भारत एक ऐसा देश है, जहां नौ महीने से अधिक समय तक सूर्य रहता है। जब हमारे पास अनगिनत सौर ऊर्जा परियोजनाएं हो सकती हैं तो जल विद्युत परियोजना की जरूरत ही क्यों है? हमें इस तरफ भी विचार करना होगा। जोशीमठ से बाहर रहने वाले लोग शायद वहां के लोगों का दर्द महसूस नहीं कर सकते। कैसी विडम्बना है, जब जल विद्युत परियोजनाएँ बनती हैं, ग्रामीणों के पुनर्वास के लिए बहुत सारे वादे किए जाते हैं, लेकिन होता कुछ नहीं है। इस तबाही के लिए कौन जिम्मेदार है? अब इस दुर्घटना की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए और पुनर्वास के साथ भारी भरकम मुआवजा भी दिया जाना चाहिए।

मानव निर्मित आपदा

यह याद रखना होगा कि प्रकृति का अपना स्वयं का स्वतंत्र धर्म एवं नियम है। प्रकृति से खिलवाड़ एवं उसका अतिक्रमण मनुष्य को बहुत ही भारी पड़ने वाला है। और यह सब मनुष्य को अपने आप को छद्म धार्मिक साबित करने के चलते हो रहा है। सदियों से जोशीमठ अस्तित्व में है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों तक वहां इतनी भीड़ भाड़ नहीं थी। जबसे समाज में पाखंड दिखावे और ढोंग का बोलबाला हुआ है, तब से कमोबेश सभी धार्मिक स्थलों का यही हाल है। दस साल पहले जून 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में भयंकर तबाही हुई थी। भयंकर बारिश और मंदाकिनी नदी में उफान ने हजारों जिंदगियां लील ली थीं, सैकड़ों घर तबाह हो गए थे। इस आपदा को प्राकृतिक कहा गया, लेकिन, असल में यह प्रकृति से अधिक मानव निर्मित आपदा थी। बारिश, गर्मी और सर्दी ऋतुचक्र का हिस्सा हैं। भूगर्भ शास्त्री कहते हैं कि धरती के नीचे तरह-तरह के परिवर्तन होते रहते हैं, इसलिए धरती कभी कांपती है, कभी उसके नीचे की सतहें एक जगह से दूसरी जगह सरकती हैं। ये सारी व्यवस्थाएं इसलिए हैं ताकि धरती का अस्तित्व बना रहे। पेड़, पौधे, कीड़े-मकौड़े, जानवर सब इस व्यवस्था के हिसाब से चलते हैं। लेकिन इंसान ने अपनी बुद्धि के घमंड में इस व्यवस्था को चुनौती देनी शुरु कर दी। जिन जगहों पर पहाड़ों को होना था, जहां जंगलों का विस्तार होना था, जहां नदियों को बहने के लिए निर्बाध जगह चाहिए, जहां बारिश के पानी को समाने के लिए स्थान चाहिए, उन सारी जगहों पर इंसान ने अपना कब्जा जमाना शुरु कर दिया। लेकिन, जब उसके कब्जे को प्रकृति का नुकसान पहुंचा, तो उसे प्राकृतिक आपदा का नाम दे दिया गया। यह नाम देने की सुविधापूर्ण चालाकी ही फिर से भारी पड़ती दिखाई दे रही है। क्या केदारनाथ संकट से कोई सबक न लेने का नतीजा है, जोशीमठ का धंसना? जोशीमठ में हालात की गंभीरता को देखते हुए अब एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना और मारवाड़ी-हेलंग बाईपास मोटर मार्ग को अगले आदेश तक तत्काल प्रभाव से बंद कर दिया गया है। संकट औऱ दहशत के बीच लोग लगातार सरकार से ध्यान देने की मांग कर रहे थे। अब सारे मामले को प्रधानमंत्री नरेन्द्र  मोदी जी स्वयं देख रहे हैं। अब एक उम्मीद बंधी है कि जोशीमठ संकट का सार्थक हल निकलेगा। वहां की परेशान जनता के साथ तो सारा देश और सरकार खड़ी हैं ही।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)

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