-द ओपिनियन डेस्क-
पूर्व पार्टी अध्यक्ष और केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सर्वाधिक सक्रिय नितिन गडकरी और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की भाजपा की सबसे शक्तिशाली संसदीय बोर्ड से विदाई से न केवल उनके समर्थकों बल्कि पार्टी कैडर में भी अजीब सी बैचेनी है। अगले दो साल में कई प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव और फिर 2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व संसदीय बोर्ड में आमूलचूल बदलाव को सभी अपने-अपने नजरिए से देख रहे हैं। शिवराज सिंह चौहान की विदाई को तो इतनी तवज्जो इसलिए नहीं दी जा रही क्योंकि बोर्ड में एक भी मुख्यमंत्री को शामिल नहीं किया है। इसमें उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल है. लेकिन गडकरी को दरकिनार करने को यह माना जा रहा है कि दुनिया की इस सबसे बडी पार्टी में सब कुछ सही नहीं चल रहा है। जबकि गडकरी को वर्तमान सरकार में सबसे सक्रिय और सफल मंत्री माना जाता है। इसके अलावा उनकी संघ परिवार में भी अच्छी पहुंच है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक समय उन्हें दूसरी बार पार्टी का अध्यक्ष बनाए जाने के लिए पार्टी का संविधान भी बदल दिया गया था।
लेकिन वर्तमान में इस चर्चा को बल मिला है कि पार्टी में प्रभावशाली नेताओं के बीच आंतरिक प्रतिस्पर्धा में गडकरी को हाशिये पर लाने की प्रक्रिया की ओर धकेल दिया है। इसको बिल्कुल वैसा ही माना जा रहा है जैसा पूर्व में लाल कृष्ण आडवाणी तथा अन्य प्रमुख नेताओं के साथ हो चुका है। यहां तक कि इस बार आरएसएस से उनकी नजदीकियां भी काम नहीं आईं।
यह माना जा रहा है कि केन्द्रीय परिवहन मंत्री गडकरी के हाल ही में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ तनावपूर्ण संबंधों की अटकलों की वजह से आरएसएस ने भी इसमें किसी तरह का दखल नहीं दिया। अब यह देखना होगा कि गडकरी कोई जवाबी हमला करते हैं या आडवाणी और अन्य नेताओं की तरह अच्छे वक्त का इंतजार करेंगे। यह भी हो सकता है कि वह राजनीति को अलविदा कह दें क्योंकि हाल ही में वह अपने बयानों से यह संकेत भी दे चुके हैं। इन बयानों में उन्होंने मौजूदा स्थिति पर निराशा व्यक्त की थी। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि क्या वह मंत्री पद से इस्तीफा देंगे। यदि गडकरी किसी भी तरह कमजोर पड़ते हैं तो इसका दूर तलक असर होगा। नेशनल हाईवे, इलेक्टिक व्हीकल, ईंधन में इथीनोल का प्रयोग जैसे उनके समय की तेज रफ़्तार के साथ कदम मिलाने वाले निर्णय बुरी तरह प्रभावित होंगे। वर्तमान केबिनेट में वही ऐसे मंत्री थे जो खुलकर अपनी बात कहते हैं।
भाजपा संसदीय बोर्ड में कर्नाटक के पूर्व सीएम येदियुरप्पा को शामिल कर मध्य प्रदेश के चार बार मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान को हटाने के पीछे राज्य में गुटबाजी बड़ा कारण माना जा रहा है। यही स्थिति असम में थी जहां से पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को संसदीय बोर्ड में जगह दी है। यह जरूर है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की अगुवाई वाली भाजपा किसी भी चुनाव को आसानी से नहीं लेती और जहां जीत की नगण्य संभावना हो वहां भी पूरी ताकत से मैदान में उतरती है, इसीलिए आगामी विधानसभा और फिर लोकसभा चुनावों के मद्दे नजर पार्टी की संगठन स्तर पर अभी से तैयारी का यह एक कारण हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में पार्टी स्तर पर जो हालात हैं उनसे तो फिलहाल यही लगता है कि गडकरी की पारी सिमट गई है क्योंकि वह ऐसे तंत्र के समक्ष आंख उठाने लगे थे जो किसी भी तरह की चुनौती को बर्दाश्त नहीं करता। यही कारण है कि संसदीय बोर्ड में नहीं होने से गडकरी अब टिकट वितरण में दखलंदाजी नहीं कर सकते क्योंकि संसदीय बोर्ड ही इसका फैसला करता है। इसे एक तीर से दो शिकार के रूप में भी देखा जा रहा है। जहां गडकरी निष्प्रभावी हो जाएंगे वहीं महाराष्ट में ही उनके प्रतिदृवंदृवी फडनवीस को आगे बढाने का आलाकमान का काम भी आसान हो जाएगा।