
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
हम अपने मुल्क़ की तक़दीर को बदल न सके।
जो हादसे* भी मुक़द्दर में थे वो टल न सके।।
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कमंद* हमने भी फैंकी थी आसमानों में।
हुजूमे-यास* से आगे मगर निकल न सके।।
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रिवायतों* की लकीरों को पीटने वाले।
बदलते वक़्त के साॅंचों में अब भी ढल न सके।।
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हमीं ने अपने लिये तीरगी* का जाल बुना।
हमीं से राहे मुहब्बत* के दीप जल न सके।।
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बना के का़फ़िला निकले ही थे बिछड़ भी गये।
ज़रा सी दूर भी हम साथ साथ चल न सके।।
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निज़ाम ए गुलशने- हस्ती* को यूॅं बदल “अनवर”।
किसी भी फूल को गुलचीं*कभी मसल न सके।।
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हादसे* दुर्घटनाऍं
कमंद* ऊंची दीवार पर चढ़ने के लिये रस्सी का फंदा
हुजूमे यास* यानी निराशाओं की भीड़
रिवायतों* परंपराओं
तीरगी* अंधेरा
राहे मुहब्बत* प्रेम का रास्ता
निजाम ए गुलशने हस्ती* जीवन रूपी उपवन की व्यवस्था
गुलचीं*फूल तोड़ने वाला
शकूर अनवर
9460851271
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