जिसकी मंज़िल पे मुहब्बत के दीए जलते हों। ज़िन्दगी में कोई ऐसा भी सफ़र आ जाए।।

shakoor anwar 00
शकूर अनवर

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

हाथ उसके बड़ा अनमोल गुहर* आ जाए।
जिसको इस दौर में जीने का हुनर आ जाए।।
*
जिसकी मंज़िल पे मुहब्बत के दीए जलते हों।
ज़िन्दगी में कोई ऐसा भी सफ़र आ जाए।।
*
कितना मुश्किल है कड़ी धूप में तन्हा* चलना।
काश आ जाए तेरी राहगुज़र* आ जाए।।
*
काश पढ़ले वो सितमगर* मेरे चेहरे की किताब।
काश उसको भी मेरा दर्द नज़र आ जाए।।
*
सालहा – साल* के मंसूबे बनाने वाले।
कौन कह सकता है तू शाम को घर आ जाए।।
*
क़ाफ़िला अब मेरा मंज़िल पे रुकेगा “अनवर”।
अब ये ख़्वाइश* नहीं रस्ते में शजर आ जाए।।
*
गुहर* मोती,
तनहा*अकेला,
राह गुज़र* रास्ता, पगडंडी,
सितमगर* ज़ुल्म करने वाला, प्रेमिका,
सालहा-साल* कई साल,
ख़्वाहिश* इच्छा,
शकूर अनवर

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