चेतना ही हमारा संस्कार करती है

स्वामी विवेकानंद का विचार क्षेत्र समूचे ब्राह्माण्ड में बाह्य संसार व आंतरिक संसार की दुनिया में समन्वय करने से है। शक्ति के जो भी केन्द्र हैं .....वह चाहे बाह्य संसार हो या आंतरिक संसार उसमें किसी तरह का कोई भेद नहीं है यह तो हमारी दृष्टि में है कि यह चेतन है तो वह जड़ है | संसार के क्रिया कलापों के लिए एक ही देश - काल में दोनों की जरूरत एक साथ पड़ जाती है। यहां पर चेतना की शक्तियां ही जाग्रत होकर हमारा मार्ग दर्शन करती है | दोनों में समन्वय से ही संसार को उसके मूल में समझा जा सकता है

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फोटो अखिलेश कुमार

– विवेक कुमार मिश्र-

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

स्वामी विवेकानंद का जीवन व विचार आधुनिकता की भाव भूमि पर 20वीं शती का एक वैज्ञानिक आलोड़न है..पदार्थ की सत्ता के साथ चेतना की संगति कैसे बिठलाइ जाये यह चिंता न तो कोरा पदार्थ विज्ञान की है और न ही कोरा चेतना के विज्ञान की बल्कि इन दोनों के आगे जाकर जब हम सोचते हैं कि विज्ञान व पदार्थ कहां है ? किस रूप में है ? इस पर जब विचार करते हैं तो सीधे – सीधे यह हमारे सामने चेतना का पूंज मनुष्य की शक्तियों में दिखलाई देता है । किसी भी विचार की स्थापना तब तक सामाजिक आकार नहीं ले सकती जब तक कि उसे वैज्ञानिकता की कसौटी पर न कसा जाय। विज्ञान की स्थापना ही तर्क व प्रत्यक्ष के अनुभव संपन्न ज्ञान को समझने की प्रक्रिया का एक जीवन दर्शन है। इस जीवन दर्शन को आधार बनाकर ही संसार को समझा जा सकता है। मनुष्य की चेतना के सामने जो संसार आता है वह एक सम्यक जीवन को देखने की प्रक्रिया है । जीवन को कभी भी एक आधार पर नहीं देखा जा सकता न ही समझा जा सकता। जीवन को समझने के लिए हमें अपने – अपने शरीर विज्ञान को चेतना के विज्ञान से जोड़कर देखने की जरूरत है।  यहां पदार्थ की सत्ता को समझने के लिए चेतना के संसार में जाने की जरूरत महसूस की जाती है । न तो कोरा पदार्थ ही संसार के लिए कल्याणकारी है न ही कोरा चेतना का संसार , संसार की व्याख्या के लिए पर्याप्त होगा। पदार्थ और विज्ञान की आपसी संगति ही संसार की चेतना को ब्राह्माण्ड से जोड़ने का काम करती है। संसार की अर्थमय संरचना का विज्ञान आध्यात्म के दर्शन से अभिव्यक्त होता है। स्वामी विवेकानंद का विचार क्षेत्र समूचे ब्राह्माण्ड में बाह्य संसार व आंतरिक संसार की दुनिया में समन्वय करने से है। शक्ति के जो भी केन्द्र हैं …..वह चाहे बाह्य संसार हो या आंतरिक संसार उसमें किसी तरह का कोई भेद नहीं है यह तो हमारी दृष्टि में है कि यह चेतन है तो वह जड़ है। संसार के क्रिया कलापों के लिए एक ही देश – काल में दोनों की जरूरत एक साथ पड़ जाती है। यहां पर चेतना की शक्तियां ही जाग्रत होकर हमारा मार्ग दर्शन करती है। दोनों में समन्वय से ही संसार को उसके मूल में समझा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि समन्वय व चेतना का संसार कहीं बाहर है वल्कि चेतना का पूरा संसार हमारे भीतर है। भीतर की शक्तियां तब तक बाहर नहीं आती जब तक बाह्य संसार से आंतरिक संसार का समन्वय नहीं होता। यह आतंरिक संसार का समन्वय ही चेतना की सत्ता का पदार्थ की सत्ता के साथ सामंजस्य हो जाना है। जीवन के मनोविज्ञान तभी संभव हो पाते हैं जब हम जीवन को समझने के लिए विचार के क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं | स्वामी विवेकानंद का यह मत बहुत दृढ़ था कि ….जो बाह्य संसार है जो पदार्थ की सत्ता है और पदार्थ में जो शक्ति , जो उर्जा , जो गति दिखलाई पड़ती है वह गति मूलतः हमारी आंतरिक संरचना की गति का केन्द्रीयभूत रूप है। इसीलिए वे बार – बार बाह्य पदार्थ की सत्ता के साथ चेतना की शक्तियों को जोड़ने – चेतना के केन्द्रीयभूत हो जाने और हमारे आंतरिक सौर केन्द्रों को जगाने की बात करते हैं। आंतरिक सौर केन्द्र तभी शुरु हो जाते हैं जब चेतना की शक्ति चैतन्यमय सत्ता के साथ – साथ पदार्थ की सत्ता को भी अपने भीतर न केवल धारण करती है वल्कि उसका पूरा जीवन ही चेतना की जागृत अवस्था में शुरु होता है। चेतना का संसार ही जीवन को जीवंत केन्द्र से सीधे – सीधे जोड़ता है। यह कहा जाना कभी पर्याप्त नहीं होगा कि संसार की शक्तियां चेतना के साथ जुड़कर जीवन को न केवल जीती हैं वल्कि जीवन को ग्रहण भी करती हैं | चेतना के होने का यह अर्थ है कि जड़ से लेकर संसार से एक साथ चेतना की संगति और शक्तियों को महसूस किये जाने की जरूरत है | यह तभी संभव होगा जब हमारे भीतर और बाहर अपार उर्जा को धारण करने की शक्ति दृढ़ हो। यह शक्ति शारीरिक वैभव के साथ – साथ चेतना के वैभव से संयोजित व क्रियान्वित होती है। यह आध्यात्म का जीवन है। यहीं हमारे संसार का केन्द्रीय भाव है जिस पर हम सबको बिना रुके चलने की जरूरत है। सांसारिक गति में संसार की शक्तियों को जानते समझते हुए हमें अपनी आंतरिक शक्तियों को पदार्थ की सत्ता के साथ जोड़कर जो गति का , चेतना का संसार बनता है वहीं मूलतः वास्तविक संसार होता है। इस संसार में किसी तरह का कोई भेद नहीं होता – एक अभेद की सत्ता चेतना से लेकर पदार्थ सत्ता के बीच अन्तर व्याप्त होती है। इस भूमि पर स्वामी विवेकानंद का विचार जिस वेदांत की बात करता है वह नव वेदांत है जिसमें मुक्ति के लिए किसी परा संसार में जाने की बात नहीं की जाती है वल्कि इसी संसार में होते हुए अपने साथ – साथ पूरे समाज को चेतना व पदार्थ की भूमि पर एक समझने की कोशिश / चिंतन ही जीवन की संपूर्णता है | इस स्तर पर आकर ही हम सब जीवन की व्याख्या को उसके पूरे संदर्भों में कर पाते हैं। स्वामी विवेकानंद का विचार सामाजिक धरातल पर मानव चेतना की बात करते हुए सभी में एक ही सत्ता को अनुभव करना ही जीवन की मूल चेतना से जुड़ना है। संसार की गति में पदार्थ की सत्ता ही हमारे दृश्य संसार की चेतना से सीधे – सीधे जुड़ जाने की प्रक्रिया है। चेतनामय संसार में आने का अर्थ है कि एक सजीव संसार से जड़ जंगम व चेतनामय अवस्था को एक साथ अनुभव करते हुए जीवन संसार की ऐसी व्यवस्था करना है जिसमें संसार को पदार्थ के रहस्य संकेतों से जीवन का अर्थ संसार निकाला जाता है। अर्थमय अवस्था में आने के लिए संसार की व्याख्या को समझना कभी भी आसान नहीं रहा। चेतना का यह अर्थ नहीं है कि जीवन की सांस दर सांस को गिना जाय वल्कि चेतन संसार उस संसार को अर्थ प्रदान करता है जिसमें अपने संसार की अवस्था में परिवर्तन लाने के लिए मनुष्य की शक्तियां कितने कदम चलती है ? कितना कुछ उसके होने मात्र से परिवर्तन होता है | परिवर्तन कभी भी आकस्मिक या अचानक नहीं होता। वल्कि जो भी परिवर्तन होते हैं वे एक लम्बी प्रक्रिया को तय कर आगे बढ़ते हैं | लगातार न दिखते क्रम में भी चलते रहते हैं। यह गति सीधे – सीधे आंखों से दिखलाई नहीं पड़ती – क्योंकि यह गति एक दो दिन की नहीं है – इसमें शताब्दियों की दिशा व दृश्यावलियां तय है। और अपने क्रम से संसार में आती है – और अपने ही विधान व चक्रीय गति से ….दिये गये संसार में बदलाव / परिवर्तन की हवा को शुरु करते हुए आगे बढ़ते हैं | यह संसार कभी भी आसान क्रम से शुरु नहीं होता | वल्कि संसार के दीर्घ अनुभव में जो कुछ भी जीवन के स्वभावानुक्रम व मार्गानुसार होते हैं – जिससे संसार अपने आपको न केवल समझता है वल्कि अपने आपको प्रकट करता है। इस संसार को जानना / समझना कभी भी आसान नहीं रहा ।जब तक आप ब्राह्माण्ड को नहीं समझेंगे तब तक आप स्वयं को समझ नहीं सकते। यह संसार न तो कोरा पदार्थ है न कोरा चेतना वल्कि संसार की सत्ता ही पदार्थ की चेतनामय अवस्था को संयोजित करने के क्रम में बनता है | स्वामी विवेकानंद के अनुसार संसार का अर्थ यह बनता है हम अपनी चेतनामय शक्तियों के साथ भौतिक संसार में पदार्थ की गतिमय अवस्था में अपनी चेतना को जोड़ने की कला सीख लिये हैं। इस रूप में जो कुछ पदार्थ में है / जो पिण्ड में है वहीं ब्राह्मण्ड में है , वहीं चेतना में है। और चेतना का प्रकाश सभी को बराबर मिलता है। आध्यात्म का यह अर्थ नहीं बनता कि हम सब एक दूसरी दुनिया में चले गये। अपितु आध्यात्म से अभिप्राय यह बनता है कि ….इसी संसार में जीवन को समझने की कोशिश में इस संसार की एक व्यवस्था करते हैं | संसार जितना और जैसे दिखलाई देता है | उससे आगे भी एक संसार है ….चेतना का संसार। इस संसार की अर्थमय संरचना को तभी समझा जा सकता जब हम चेतना के विज्ञान को समझ पाने में समर्थ होते हैं। चेतना ही हमारा संस्कार करती है। चेतना के संसार में जाकर ही हम संसार की अर्थमय आभा को पकड़ पाते हैं। जीवन की संपूर्ण गति हम सबकी मनोमय चेतना को विन्यस्त करने का काम करती है। जिससे पूरी दुनिया में आध्यात्मिक अनुभूति को जीवन के रहस्य को समझने का एक जरिया माना गया है। इस रूप में जो संसार सामने है वह हमारी सत्ता के साथ – साथ संसार की सत्ता को प्रकट करने का एक मंच प्रदान करता है। …..व्यक्तिगत मुक्ति का माध्यम भर नहीं माना गया वल्कि इससे बहुत आगे सामाजिक मुक्ति का माध्यम माना गया । यह सामाजिक मुक्ति ही किसी भी समाज व संसार की पहली जरूरत है ….जिसे समझने के लिए हमें मनुष्य की ओर आने की जरूरत है।धर्म यहां जीवन के भीतर है …किसी भी बाह्य उपकरण से धर्म की जो व्याख्या की जाती है व धर्म न होकर जीवन व्यवहार के कुछ शास्त्र सम्मत उपकरण व सिद्धांत भर होते हैं ….जिससे कुछ हासिल नहीं होता।

(सह आचार्य हिंदी राजकीय कला महाविद्यालय कोटा)
F-9, समृद्धि नगर स्पेशल , बारां रोड , कोटा -324002(राज.)

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