ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
शिकस्ता नाव थी मेरी मेरा मुक़द्दर था।
सियाहियों* का बहुत दूर तक समंदर था।।
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अगरचे फूल सा नाज़ुक बदन तो था उसका।
मगर वो ज़ुल्म का परवर्दा* दिल का पत्थर था।।
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हमारा अज़्म हमें मंजि़लों पे लाया है।
वगरना मौत का साया हमारे सर पर था।।
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ख़ूदा ने इसलिए खूॅं रेज़ियाॅं* अता कर दीं।
फिर उसके बंदों के दस्ते दुआ* में ख़जर था।।
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तुम्हारे हिज्र में “अनवर” कहाँ अकेले रहे।
हमारे साथ तो यादों का एक लश्कर था।।
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सियाहियाें*ॲंधेरों
पर्वरदा* पला हुआ
ख़ूरेज़ियाॅं* मार काट लड़ाई
दस्ते दुआ* प्रार्थना करने वाले हाथ
शकूर अनवर

















