कहाॅं से खुशबुऍं देंगे ये फूल काग़ज़ के। कभी किनारे से लगती है नाव पत्थर की।।

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

कहानी कहती है कुछ ख़ामुशी भी मंज़र* की।
समझ में आने लगी है ज़ुबान ख़ंजर की।।
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कहाॅं से खुशबुऍं देंगे ये फूल काग़ज़ के।
कभी किनारे से लगती है नाव पत्थर की।।
*
वो उथली- उथली सी मौजों से डर नहीं सकता।
जो दिल में रखता हो गहराइयाँ समन्दर की।।
*
इरादा रखते हैं हम हाले-दिल* सुनाने का।
अगर वो क़ाबू में* रक्खें ज़ुबान गज़ भर की।।
*
सुलझ गये तेरी ज़ुल्फ़ों के पेचो-ख़म* “अनवर”।
उलझ के रह गई गुत्थी मेरे मुक़द्दर की।।
*

मंज़र*दृश्य
हाले-दिल*दिल का हाल
क़ाबू में*बस में कब्जे में
गज*पुराना कपड़े नापने का गज जो36 इंच का होता था
पेचो-ख़म*ज़ुल्फ़ों के बल,

शकूर अनवर
9460851271

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