
ग़ज़ल
– अहमद सिराज फारूकी-

दुआएं दीजिये हम ये भी काम करते हैं
चराग अपने हवाओं के नाम करते हैं
गिरा रहे हो ग़रीबों के झोंपड़े तो सुनो
इन्हीं घरों में ये उम्रें तमाम करते हैं
कोई बताए तो ताबीर इसकी क्या होगी
कि मुझसे ख़्वाब में कीकर कलाम करते हैं
यही ज़माने का दस्तूर है, यही है चलन
ज़रा सा चढ़ने लगो सब सलाम करते हैं
जदीदियत से अकीदत सही हमें लेकिन
रिवायतों का भी हम अहतराम करते हैं
न कोई दीन है इनका न कोई धर्म ‘सिराज’
जो बेगुनाहों का यूं कत्ले-आम करते हैं
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