हिसाब-किताब

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प्रतीकात्मक फोटो

– विवेक कुमार मिश्र

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

हिसाब छुटते भी नहीं छुटता
आदमी इस कदर उलझ जाता है कि
निकल ही नहीं पाता
उलझे हुए आदमी में कहां ढ़ूढ़ते हो
एक सुलझा हुआ आदमी
आदमी की जान हिसाब-किताब में
उलझी रह जाती है

एक आदमी चला जाता है
हिसाब-किताब वाली दुनिया में
कहीं भी कुछ भी ऐसा नहीं होता कि
हिसाब-किताब से अलग हो जाएं
यह दुनिया कुछ और नहीं है
हिसाबों का पुतला आदमी
इस हिसाब-किताब में उलझा रहता है

हिसाब-किताब में मत उलझो
छोड़ दो हिसाबी दुनिया
जहां बहुत ज्यादा गणित है
वहां क्या जाना
जहां जाकर उलझना ही नियति हो
उसे पहले ही छोड़ देने में
समझदारी है

हमारे बुजुर्ग इस मामले में समझदार रहे
किसी का भी ऋण नहीं रखते
उऋण होने को…
सबसे बड़ा धर्म मानते थे
फिर तुम भला क्यों उलझे हो
जगत के हिसाब-किताब में
जो है उसे जीना क्या कम है
जो उलझे हो मायाजाल में
निकल भागों दुनियावी गणित से
एक बार तिर जाओ
मुक्त आकाश में मगन मन ।

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