शिक्षा और संस्कार

आधुनिकता की दौड़ में कही हम अपने बच्चों को सिर्फ शिक्षित ही कर रहे है मगर मात्र सूचना को एकत्रित करना ही हुआ, हमें उन्हें शिक्षित करने के साथ-साथ दीक्षित करने की भी आवश्यकता है। धारणा स्वरूप यानी कथनी और करनी में एक समानता एकता नज़र आए। यानी व्यवहारिक जीवन में कर्म में वो ज्ञान शिक्षा व्यवहार से झलके, हमारे संस्कारों से दिखे

suarmai sham

-बी.के. प्रभा मिश्रा-

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बी.के. प्रभा मिश्रा

मनुष्य जीवन की, मानवता की जीवन की रीढ़ की हड्डी है उसके संस्कार। अगर वो ठीक है तो सारा जीवन सुगमता से सरल बीत जाता है। वरना हर वक्त कोई आह, दर्द और पीड़ा कोई न कोई रूप में कराहता रहता है। क्या आज कल समाज हमारी पीढ़ी सुसंकरित हो रही है! जो परंपरा हमारे पूर्वजों ने धरोहर के रूप में हमें देकर गए क्या वो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरण हुए हैं।

आज का जो समय है हमें इन बातों पर चिंतन करने पर मजबूर कर रहा है। आधुनिकता की दौड़ में कही हम अपने बच्चों को सिर्फ शिक्षित ही कर रहे है मगर मात्र सूचना को एकत्रित करना ही हुआ, हमें उन्हें शिक्षित करने के साथ-साथ दीक्षित करने की भी आवश्यकता है। धारणा स्वरूप यानी कथनी और करनी में एक समानता एकता नज़र आए। यानी व्यवहारिक जीवन में कर्म में वो ज्ञान शिक्षा व्यवहार से झलके, हमारे संस्कारों से दिखे।

आज हमारे बच्चे एजुकेटेड तो हो रहे हैं, ग्रेजुएट और अप टू डेट भी हो रहे हैं। मगर कहीं कमी नजर आती है कि वो प्रैक्टिकल में ज्ञान अप्लाई करने की। अब नदारद हो रही है हमारा लक्ष्य है उन्हे ऊंची शिक्षा देकर ऊंची से ऊंची पोस्ट पर पहुंचाना। नाकी एक संस्कारित व्यक्तित्व बनाना। Today we are learning for earning not for living, हमारा हमारा उद्देश्य नाम, मान, शान, पद, पोजीशन पाना है।

एक बेहतर इंसान बनना बाद की बात है, कारण कॉम्पिटिशन। Competition भी अगर हेल्थी तो ठीक है पर हम तो अनहेल्थी कंपटीशन में चल रहे हैं। चाहे किसी को गलत ढंग से गिराना झुकना पड़े पर हम सबसे आगे होना चाइए। और यह विसंगति कहीं ना कहीं आत्मा को कुंठा से भर देती है। और जीवन में बस दौड़ ही है बचती है, लक्ष्य विहीन दिशा की ओर।

पहले ज़माने के बच्चे सुबह उठकर माता पिता के चरण स्पर्श करते थे, आशीर्वाद लेते थे। लेकिन आज हाय डैड और बाय डैड की चलन चला दी है। जब कुछ बुरा होता था तो हाय हाय कहते थे। अब दिन की शुरुआत ही हाय से हो रही है।

हमारे जमाने में अगर 60% मार्क्स आते थे तो मां पूरे मोहल्ले में मिठाई बांटती थी। मेरी बेटी फर्स्ट क्लास में पास हुई है। अब मां-बाप 90-95 98% में भी खुश नहीं होते। इतना मानसिक दबाव बच्चों पर डाल देते हैं की, पेरेंट्स को खुश करने के चक्कर में बच्चे कई बार गलत तरीके आज़मा लेते हैं। और अगर पकड़े गए तो क्या। वो बच्चा कभी अपने आत्मविश्वास को वापस लौट सकता है। गिल्ट guilt conscious में रहने वाले बच्चे फिर और गलत संगत में पड़कर संस्कारों का अंतिम संस्कार कर देते हैं, और चल पड़ते हैं एक गुनाहगार जीवन की ओर जहां से लौटना नामुमकिन सा प्रतीत होता है।

पहले हमारे घर के बाहर बोर्ड होता था सुस्वागतम या स्वागतम धीरे-धीरे हम एजुकेटेड होते गए बोर्ड लग गया वेलकम का आज बड़े शहरों में चले जाएं बाहर लिखा होता है कुत्तों से सावधान be aware of the dogs क्या यही हम अपनी संस्कृतियों की धज्जियां नहीं उड़ा रहे हैं।

बच्चों को संस्कार घर से माता पिता, दादा दादी बड़े बुजुर्गो मिलते थे। पर आज संयुक्त परिवार की परंपरा तो आज ध्वस्त कर दी है। हमें स्वतंत्रता चाहिए हमें आजादी चाहिए पर किस कीमत पर। इसका हमें मनन चिंतन करना ही होगा। बचपन से बच्चों में दिव्य संस्कार डालने होंगे। कच्ची मिट्टी है थपथपा कर जो शेप देना चाहे वह दे सकते हैं। एक बार उम्र रूपी भट्टी में पक गए तो फिर कुछ नही किया जा सकता। अभी समय है लौटे अपनी पुरानी संस्कृति, संस्कार, और विरासत की ओर अपने आप से शुरुआत करें हम बदलेंगे तो दुनिया बदलेगी।

बी.के. प्रभा मिश्रा
शांतिवन, ओम शांति शांति प्रोडक्शन।

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