ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
ज़ुल्म के दरबार में शिरकत* नहीं कर पाऊॅंगा।
मैं यज़ीदों* से कोई बेअत* नहीं कर पाऊॅंगा।।
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ऐ ज़माने छोड़ मुझको मेरी मजबूरी समझ।
मैं किसी इन्सान से नफ़रत नहीं कर पाऊॅंगा।।
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ऐ खु दा बस तेरी रहमत का सहारा चाहिए।
वरना ख़ुद को दाख़िले-जन्नत* नहीं कर पाऊॅंगा।
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मैं तुम्हें चाहूॅंगा दिल से बस यहीं तक ठीक है।
मैं परिस्तिश* की कोई आदत नहीं कर पाऊॅंगा।।
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जान दे दूॅंगा इन्हीं गलियों में “अनवर” देखना।
मैं तुम्हारे शहर से हिजरत* नहीं कर पाऊॅंगा।।
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शिरकत*शामिल होना
यज़ीदो*अत्याचारी,शासक
बेअत*अनुयायी होना
दाखिले जन्नत* स्वर्ग में प्रवेश
परिस्तिश* पूजा करना पूजना
हिजरत*पलायन
शकूर अनवर
9460851271

















