
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
ग़म का लावा कहीं अंदर का पिघलता होगा।
तब कहीं जाके वो अशआर में ढलता होगा।।
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जाऊॅं बतलाऊॅं शबे हिज्र* कटी है कैसे।
सैर के वास्ते वो घर से निकलता होगा।।
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झुर्रियाॅं आपके चेहरे की पता देती हैं।
आपके हुस्न का सिक्का कभी चलता होगा।।
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उसकी यादों के ही साए मुझे ठंडक देंगे।
वर्ना सूरज तो अभी आग उगलता होगा।।
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और कुछ देर ठहर ऐ दिले बेताब ठहर।
चाॅंद जो छुप गया बदली में निकलता होगा।।
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कल उसे नोच ही डालेगा ज़माना सोचो।
आज जो गुंचा* यहाॅं फूलता फलता होगा।।
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सामने दूर जो दिखता है उजाला “अनवर”।
घर वहाँ पर किसी मजबूर का जलता होगा।।
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शबे हिज्र* वियोग की रात
गुंचा*कली
शकूर अनवर