कहाँ छोड़ते हैं वो दामन वफ़ा का। वो कब तोड़ देंगे क़सम देखते हैं।।

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

करम* देखते हैं सितम* देखते हैं।
यही सब मुहब्बत में हम देखते हैं।।
*
वहीं पेच* खाती है तक़दीर मेरी।
वो जब जब भी ज़ुल्फ़ों में ख़म* देखते हैं।।
*
मुहब्बत की राहों के ये सब मुसाफ़िर।
हमारे ही नक़्शे- क़दम* देखते हैं।।
*
सभी की तरफ़ उनकी नज़रे- इनायत*।
मगर मेरी जानिब वो कम देखते हैं।।
*
कहाँ छोड़ते हैं वो दामन वफ़ा का।
वो कब तोड़ देंगे क़सम देखते हैं।।
*
बहुत दूरबीनी* के सदक़े है “अनवर”।
बहुत पास मंज़िल जो हम देखते हैं।।
*

करम*मेहरबानी
सितम*ज़ुल्म, अत्याचार
पेच*बल
ख़म*जुल्फों के बल
नक़्शे-क़दम*पद चिन्ह
नज़रे-इनायत*कृपादृष्टि
दूरबीनी* दूरदर्शिता

शकूर अनवर
9460851271

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