किताबें सबकी हैं

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डाँ आदित्य कुमार गुप्ता

aditya kumar
डाँ आदित्य कुमार गुप्ता

किताबों की जाति नहीं होती
किताबें सबको चाहती हैं
जो भी प्रेम से पकड़ लेता
उसकी गोद में बैठ जाती
दर असल , किताबों में
प्रवाहमान अंत:सलिला
समरसता, बंधुता और
सौहार्द की पावन गंगा
शनै: शनै: सबको
डूबाती है, अपन में
अगर पूर्वाग्रही न हों हम ।
किताबों का कोई धर्म नहीं होता
किताबों में बसता है धर्म
मानवीय जीवन को निखारता
जीवन व्यवहार को परिष्कृत करता
समय की शिला पर
अंकित करता देता
मानवीय जीवन का
वैविध्य रंगी चेतना का इतिहास ।
किताबों का कोई देश नहीं होता
वे सब देशों, कालों से ऊपर
मानवता की कथा कहती
समय के चट्टानों से टकराती
अपनी छाप छोड़ती
दिग्दिगंत को ध्वनित करती
हो जाती ,कालजयी
परमसत्ता के वैभव सी ।

डाँ आदित्य कुमार गुप्ता कोटा ।

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