
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
पड़ा है क़हत,* ज़मीनों पे फिर गवाही का।
यक़ीन कैसे दिलाऊॅं मैं बेगुनाही का।।
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है आसमाॅं पे सरे-शाम ही से ख़ामोशी।
फ़लक़ ने सोग मनाया मेरी तबाही का।।
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वक़ार* टूटा मेरी वुसअते-नज़र* का वहीं।
शिकार जब भी हुआ हूॅं मैं कमनिगाही*का।।
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अवाम* फ़ैसला देंगे वो आख़िरी होगा।
ज़माना ख़त्म हुआ अब तो बादशाही का।।
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समझ सके न तहफ़्फ़ुज़* का तुम कोई मफ़हूम।
भरम भी तोड़ दो अब तो जहाॅंपनाही* का।।
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तुम्हारे दिल से निकलकर वो हाल है मेरा।
निकल के दरिया से अंजाम जो है माही*का।।
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ॲंधेरी रात सितारों को हुस्न देती है।
उजाला देखिये मोहताज है सियाही का।।
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किया कराया उसी शख़्स का है सब “अनवर”।
जो हाल पूछने आया मेरी तबाही का।।
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क़हत*सूखा अकाल
वक़ार* वैभव शानो शौकत
वुसअते-नज़र*दृष्टि संपन्नता
कमनिगाही* कम तवज्जो से देखना
अवाम*जनता आम लोग
तहफ़्फ़ुज़*हिफ़ाज़त सुरक्षा
मफ़हूम*आशय समझ
जहाॅंपनाही का*बादशाह होने का
माही*मछली
शकूर अनवर
9460851271

















