
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
नहीं है खेल मुहब्बत को सुर्ख़रू* करना।
दिलो जिगर को पड़ेगा लहू-लहू करना।।
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तू अपने आप में इक हौसला तो पैदा कर।
फिर उसके बाद सितारों की आरज़ू करना।।
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जो सी सको तो गरीबाॅं* का चाक सी लेना।
बड़ा मुहाल* है ज़ख्म ए जिगर रफ़ू करना।।
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मैं जानता हूॅं वो सर को झुका के सुन लेगा।
फिर उसके सामने क्या शिकवा ए उदू* करना।।
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शगूफ़े* दिल में खिले हैं किसी की चाहत के।
हमें भी आ गया अहसास ए रंगो बू* करना।।
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न आ सकेगा तयम्मुम* मिज़ाज लोगों को।
ख़ुद अपने ख़ूने जिगर से कभी वज़ू करना।।
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बड़ा अजीब है अपना भी मशग़ला “अनवर”।
झुलसती रेत मे पानी की जुस्तजू* करना।।
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सुर्ख़रू*कामयाब
गरीबाॅं* दामन पोशाक का अगला हिस्सा
मुहाल*कठिन
उदू* दुश्मन
शगूफ़े* कलियाॅं
रंगो बू* रंग और ख़ुशबू
तयम्मुम* बिना पानी के वज़ू करने का तरीक़ा
मशग़ला*शौक़
जुस्तजू* तलाश खोज
शकूर अनवर


















बहुत उम्दा ग़ज़ल