
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

दिल की बर्बादी का अफ़साना कहा करता है।
ये जो ऑंखों से मेरी ख़ून बहा करता है।।
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छोड़ कर साथ मेरा इतने पशेमाँ* क्यूॅं हो।
ये तो अक्सर ही ज़माने में हुआ करता है।।
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डर के बिजली से कहाॅं जाओगे सोचा तुमने।
फिर नशेमन* तो उजड़ता है बना करता है।।
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तुम अगर ख़ीज़्र * नहीं हो तो बताओ क्या हो।
कौन तपते हुए सहरा* में मिला करता है।।
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क़ुर्बे-मंज़िल* है ज़रा सोच समझ कर चलना।
क़ाफ़िला ऐसे मक़ामों पे लुटा करता है।।
हम भला चाॅंद से क्यूँ रोशनी माॅंगे “अनवर”।
वो तो ख़ुद रात का मोहताज* हुआ करता है।।
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पशेमाँ*शर्मिन्दा,
नशेमन*घोंसला घर
ख़िज़्र *एक अदृश्य बुज़ुर्ग जो भटके हुओं को रास्ता बताते हैं
सहरा*रेगिस्तान
क़ुर्बे-मंज़िल*मंज़िल के क़रीब
मोहताज*ज़रूरत मंद निर्भर
शकूर अनवर
9460851271