-मधु मधुमन-
जाने क्या क्या सोचते हैं चाय का कप और मैं
जोड़ते कुछ राबिते हैं चाय का कप और मैं
दूसरा कोई हमारे साथ जब होता नहीं
तार दिल के छेड़ते हैं चाय का कप और मैं
बारहा यादों के गलियारों की खिड़की खोल कर
दिल के भीतर झाँकते हैं चाय का कप और मैं
वक़्त-ए-माज़ी के शजर से चंद लम्हे तोड़ कर
महके महके डोलते हैं चाय का कप और मैं
बेख़बर दुनिया से अपने ही ख़यालों में में कहीं
बहके-बहके घूमते हैं चाय का कप और मैं
दिल के तहख़ानों में रक्खे हैं छुपा कर सब से जो
वो ख़ज़ाने खोलते हैं चाय का कप और मैं
ज़िंदगी के खट्टे-मीठे तज्रिबों के ज़ायक़े
ज़ह्न-ओ-दिल में घोलते हैं चाय का कप और मैं
अब्र यादों के बरसते हैं कभी आँखों से जब
बारिशों में भीगते हैं चाय का कप और मैं
दर-ब-दर अपने तसव्वुर में ही ‘मधुमन ‘घूम कर
जाने किसको ढूँढते हैं चाय का कप और मैं
मधु मधुमन

















