
ग़ज़ल
शकूर अनवर
ख़ुदा जाने मैं किसके वास्ते क्योंकर बनाता हूॅं।
मगर काग़ज़ पे अक्सर तितलियों के पर बनाता हूॅं।।
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नहीं है शाख़ अब तो कोई भी महफूज़* गुलशन में।
जलाती है वहीं बिजली जहाॅं भी घर बनाता हूॅं।।
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समन्दर की तहों में गोहरे नायाब* मिलते हैं।
मैं अपना रास्ता दिल के बहुत अंदर बनाता हूॅं।।
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अगर टूटे तो टूटें अब यहाॅं पर मंदिरो मस्जिद।
मैं दिल को सख़्ती ए हालात* से पत्थर बनाता हूॅं।।
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ख़याले यार* से फ़िक्रे सुख़न* तस्कीन* पाती है।
जमाले यार* से अशआर को बेहतर बनाता हूॅं।।
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हुआ मशहूर आज़र* पत्थरों से बुत बनाने में।
मेरा फ़न और है मैं पत्थरों से घर बनाता हूॅं।।
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चमन को जा ब जा रंगीन करता है लहू मेरा।
मैं अपने खून से “अनवर” कई मंज़र बनाता हूॅं।।
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महफूज़*सुरक्षित
गोहरे नायाब*अनमोल मोती
सख़्ती ए हालात*कठिन परस्तिथी में
ख़यालेयार*मेहबूब का ख़याल
फ़िक्रे सुख़न*काव्य चिंतन
तस्कीन*तृप्ति
जमाले यार*प्रेमिका का सौंदर्य
आजर* एक प्रसिद्ध मूर्तिकार
जा ब जा * जगह जगह
शकूर अनवर
9460851271