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– विवेक कुमार मिश्र-

भाषा मनुष्य को नए सिरे से रचती है । मन आत्मा क्या कुछ सोचते करते हैं ? हमें क्या करना है ? क्या नहीं करना है ? हमारे सोचने का तरीका क्या हो ? इस बात की जीवित अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से होती है। भाषा हमारे आंतरिक संसार के साथ वाह्य संसार को देखते समझते हुए एक चिन्हीकरण की संरचना बनाती है। चिन्हों से हम पहचान करना सीखते हैं और जब भी अभिव्यक्ति के पहले चरण पर कोई समाज आता है तो वह सबसे पहले चिन्हीकरण को ही अपनाता है। अपनी बात को चिन्हों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है ।

सहज भाषा ही सामाजिक स्वरुप ग्रहण करती है
इस तरह चिन्हीकरण की संरचना से भाषा की ओर समाज कदम बढ़ाता है। चिन्ह एक संरचना, एक व्यवस्था, एक निश्चित अर्थ तय कर देती है – इस अर्थ से संसार अपना कार्य व्यवहार करता है एक दूसरे से संवाद करता है और जीवन पथ पर चलने के लिए ये चिह्न ही सामाजिक बोध व मानसिक दक्षता के पर्याय के रूप में सामने आता है। इन चिन्हों के साथ व्यक्ति समाज चलता है और इस आधार पर हम सब अपना कदम बढ़ाते हैं । इन्हीं अर्थों में चिह्न भाषा की एक सामाजिक इकाई बनाने का काम करते हैं। समाज इन चिन्हों के साथ जहां चलता है वहीं नये नये चिह्न समय बोध व सामाजिक बोध के साथ गढ़ता है । यह एक सामाजिक मानसिक और गतिशील प्रक्रिया है जिसमें समाज अपने पूरेपन के साथ जीता है । समाज से संसार से जितना ज्यादा संवाद होगा उतना ही चिन्ह सामने आते रहते हैं । फिर एक तरह के चिन्ह से एक संरचना का प्रयोग किया जाता है । इस तरह चिन्हों की दुनिया भाषाई संरचना को स्थाई रूप देने का भी काम करते हैं । चिन्ह संरचना में जब

डॉ. विवेक कुमार मिश्र

व्यवस्था और नियम के साथ यह तय हो जाता है कि इस चिन्ह का यह अर्थ है तो यह अर्थ ही संकेत करते हुए हमारे संसार को अर्थ के संसार से खोलने लगता है। चिन्ह के साथ समाज अपने सांसारिक संबंधों को जीने लगता है। जब हमारा सघन रिश्ता संसार से होता है तो चिन्हों के अभिव्यक्तिकरण में भाषा के रचनात्मक संसार को भी महसूस किया जा सकता है। भाषा हमेशा ही संवाद के लिए और अधिक से अधिक लोगों तक संप्रेषण के लिए अपने को अभिव्यक्त करती है। जो भी भाषा सहज रूप से संवेदनशील और अधिकतम समाज तक अपनी बात को रखने में कारगर होती है वही अपना सामाजिक स्वरूप ग्रहण करती है।

हिंदी एक सर्वसमावेशी सामाजिक देश की भाषा है

भाषा की संप्रेषणीयता ही उसकी सामाजिक संपत्ति होती है। कोई भी भाषा कितने दूर तक अपनी बात को लेकर जाती है यह उसकी सहजता, सरलता, सरसता और संप्रेषणीयता के साथ उसकी नमनीयता पर निर्भर करता है। भाषा को समझने के लिए हमें भाषा के समाज और उस संसार में जाने की जरूरत पड़ती है जिस समाज से वह भाषा उठती है और जिस समाज तक उस भाषा के स्वर व संदेश पहुंचते हैं। भाषा समाज के हर वर्ग के लिए होती है उसके संवेदन में सबके लिए शब्द और चिन्ह होते हैं। वह किसी एक वर्ग के लिए या एक वर्ग तक सीमित नहीं होती बल्कि उसके भीतर पूरे समाज को अपनी सामाजिक संरचना के साथ जीवन और शब्द मिलते हैं। जहां तक हिंदी भाषा का सवाल है तो यह मध्य देश की उन तमाम बोली समूहों का सामूहिक संप्रेषण है जिसमें मध्य देश की जनता संवाद और सामाजिक क्रिया व्यापार व व्यवहार करती है। हिंदी एक सर्वसमावेशी सामाजिक देश की भाषा है जिसमें सब तरह के लोग आते हैं और सभी अपने को अभिव्यक्त करते हैं । हिंदी में अपने को कहने के लिए बहुत ज्यादा व्याकरण में बहुत ज्यादा बंधन में बंधने की जरूरत नहीं है । हिंदी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समाज को एक साथ संबोधित करने वाली लोकतांत्रिक चेतना की आम आदमी के ध्वनि बोध की भाषा है। हिंदी में कहने के लिए बहुत बड़े व्याकरण उसमें या नियमों की जाल में उलझने की जरूरत नहीं बल्कि एक सहज व सरल व्याकरण बोध के साथ सामाजिक संवेदन और रिश्तो को जीते हुए आप हिंदी को जीने लगते हैं। हिंदी भाषा भाषी समाज स्वतंत्रता और सामाजिक संवेदन के बोध की भाषा को अपने भीतर जीते हुए जीवन की कहानी को अभिव्यक्त करती है। भाषा कुछ इस तरह से कार्य करती है –
1. भाषा हमें सर्जनात्मक व स्वतंत्र बोध का मानुष बनाती है । यह हम पर है कि हम भाषा से किस तरह का कार्य लेते हैं । क्या कुछ करते हैं और क्या कर सकते यह सब भाषा के संसार में तय होता है ।
2. भाषा में हम अपनी स्मृतियों को जीवित करते हैं । भाषा हमारा स्थाई संवेदन और घर बनाती है ।
3. भाषा हमारा सामाजिक परिसर निर्मित करती है । एकांतिक समाज को बदलते हुए मनुष्य को स्वाभाविक रूप से सामाजिक बनाने का कार्य भाषा करती है ।
4. भाषा हमारे सारे क्रियाकलाप व जीवन व्यापार को एक साथ करने में सक्षम होती है ।
5. भाषा बोध स्वातंत्र्य बोध व चेतना बोध का निर्माण करती है ।
6. भाषाई चेतना हमारी स्वतंत्रता व लोक चेतना को जीवन प्रदान करने के साथ-साथ हमारा सामाजिक क्रिया व्यापार व जीवन निर्माण करने का कार्य करती है ।
7. भाषा में हम सब अपने इतिहास जीवन व दर्शन को संरक्षित ही नहीं करते बल्कि उसे अपने जीवन के रूप में जीते हैं ।
8. भाषा समृद्ध ही तब होती है जब वह अपने लोक परिसर से निरंतर जीवन और संसार को लेकर जीवित होती है तो हमारा जीवन व्यवहार व भाषा व्यवहार एक साथ सम्मिलित होता है ।
9. भाषा के इस संवेदन में हमारे जीवन मूल्य संस्कार व संवेदन एक साथ संरक्षित होते हैं ।
10. हिंदी भाषा की जब बात करते हैं तो एक साथ स्वतंत्र लोक चेतना व जीवन निर्माण की भाषा का बोध होता है । भाषा मूलतः हमारे जीवन संस्कार हमारी संरचना के साथ-साथ हमारे प्रतिरोध को भी हमारे स्वर को और हम सब की स्वतंत्र चेतना को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ लोक चेतना को भी अभिव्यक्त करती है ।
मूलतः भाषा हमारे समाज जीवन संसार और स्वाभाविक सांस्कृतिक बोध के साथ-साथ हमारी आत्मा को संस्कारित करने का जहां काम करती है वहीं जीवन का , सहज निर्माण का कार्य भाषाई संरचना से होता है । हम संस्कृति के लिए संस्कृति बोध के साथ जीवन निर्माण की कथा को तभी आगे बढ़ा सकते हैं जब हमारे भीतर भाषा की स्वतंत्र चेतना हो और भाषा में अपनी स्मृतियों को जीवित करना जानते हों । भाषा हम सबकी विरासत को धड़कन के रूप में संभाल कर रखती है ।

(एसोसिएट प्रोफेसर, राजकीय कला महाविद्यालय कोटा)

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