-डाँ आदित्य कुमार गुप्त-

संभलकर चलें
जिन्दगी की डगर
चारों ओर घाटियां ही घाटियां
माया-प्रसार झाड़ झंकार
पैर फिसलते देर नहीं लगती ।
दृढ़ पावन संकल्प
कर्मरत रहें हर पल
लक्ष्य पर हों निगाहें
चिडिय़ा की आँख पर
अर्जुन की तरह ।
जीवन वरदान है भूमा का
कमल है, कीचड़ में फरा
गुलाब है काँटो भरा
बीहड़ जंगलों में, मुस्कुराते हुए
स्वयं पथ बना
चलते रहो, अहर्निश
दिवाकर, निशाकर की तरह ।
संघर्ष भरीं हैं राहें
पर आतुर स्वागत को
कदम तो बढ़ाओ
तुम्हारी जीवटता
हरा देगी हर तमस को
उत्थान-पतन का चक्र
अनवरत चलायमान है
रात-दिन की तरह ।
डाँ आदित्य कुमार गुप्त कोटा ।

















