
– विवेक कुमार मिश्र

दूर दूर तक जहां तक दीठि जाती है सूरली के फूल हैं
बिना किसी कोशिश के बिना सेवा व देखभाल के
यूं ही मगन हो खिलते ही रहते हैं
अपने ही रंग में रंग जाते हैं
सूर्ख हो खिल रहे हैं सूरमयी आभा में
सूरली के फूलों को देखता हूं
और बार बार सूर्य की किरणों को देखता हूं कि कैसे
जग पर धरती पर होने मात्र को संभव बनाती आ रही हैं
सूर्य की किरणें
सूरली के फूल अपने सुनहरे तने
के साथ तन कर खड़े हैं
और अपने भीतर खिले फूलों में
लाल और गुलाबी रंगों की आभा
इस तरह भरते जाते हैं कि
बस देखते रहिए इस विस्तृत संसार को
जहां कुछ और नहीं सूरली के फूल खिले हैं
कहते हैं कि यह कुछ खास नहीं है
घांस फूंस और खरपतवार की श्रेणी में आता है
पर कहां प्रकृति ने सबको किस तरह से सजाया है कि
जहां जो है बस वहीं दिखता है
उसके आगे सूरली के फूल को आप चाहें तो खर-पतवार कह लें
पर सुबह सुबह आंखों को जीवन का पाठ
सौंदर्य का पाठ कभी कभार इस तरह भी मिलता है
जहां ऐसे ही छुटे हुए, बचे खुचे संसार में जीवन और सौंदर्य
का पाठ पढ़ते रहते हैं ।
– विवेक कुमार मिश्र