होता आया है ज़मीनों का यहाँ बटवारा। ये तो क़िस्सा है पुराना सा वही घर घर का।।

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

क़ैस* शहज़ादा हुआ करता था अपने घर का।
एक दिन वो भी मुहब्बत में हुआ दर-दर का।।
*
गूॅंगे बहरे थे सभी कौन गवाही देता।
शुक्र कर बोल उठा कुछ तो लहू ख़ंजर का।।
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उसके नाज़ुक से दहन* में है ज़ुबाॅं लोहे की।
उसके सीने में भी इक दिल है मगर पत्थर का।।
*
सहमे सहमे से हैं मीनार यहाॅं मस्जिद के।
ग़ैर-महफ़ूज़* है सोने का कलस मंदर का।।
*
होता आया है ज़मीनों का यहाँ बटवारा।
ये तो क़िस्सा है पुराना सा वही घर घर का।।
*
जिसको दुश्मन भी बहुत प्यार किया करते थे।
आज अपनों से हुआ क़त्ल उसी “अनवर” का।।
*

क़ैस*मजनू का नाम,
दहन* मूॅंह, मुख,
ग़ैर-महफ़ूज़*असुरक्षित

शकूर अनवर
9460851271

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D K Sharma
D K Sharma
2 years ago

बहुत खूब