लफ़्ज़* निकले ही नहीं मुॅंह से शिकायत बनकर। वो मेरे दिल में रहा सिर्फ़ मुहब्बत बनकर।।

shakoor anwar 129
शकूर अनवर

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

लफ़्ज़* निकले ही नहीं मुॅंह से शिकायत बनकर।
वो मेरे दिल में रहा सिर्फ़ मुहब्बत बनकर।।
*
तपते सहराहों* में बरसात की ठंडक लाया।
कौन आया है सराबों* में हक़ीक़त बनकर।।
*
वो दीये भी तो कुदूरत* का धुआँ देने लगे।
जिनको जलना था चराग़े रहे उल्फ़त बनकर।।
*
दिल में उसके लिये क्या हसरत ए दीदार* रखूॅं।
मेरी ऑंखों में रहा हो जो बसारत* बनकर।।
*
ले गये लूट के उर्दू को तरन्नुम वाले*।
रह गये शेरो-सुख़नसिर्फ़ तिजारत बनकर।।
*
हमने ख़ुद अपना चमन सामने जलते देखा।
बाग़बाॅं* खो गये अरबाबे-सियासत* बनकर।।
*
ये मेरे शेर हैं “अनवर” कोई तक़रीर नहीं।
याद आयेंगे ज़माने को नसीहत बनकर।।
*

लफ़्ज़*शब्द
सहराओं*रेगिस्तानों
सराबो*मरिचिकाओं
कुदूरत* बुराई नफ़रत

शकूर अनवर

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